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जिस काम का निषेध कर दिया है, उसी कार्य में आवश्यकतानुसार फिर प्रवृत्ति करनी हो तो मैं गुरु से उसकी पुन: आज्ञा प्राप्त करता हूं। (८) छन्दना - पहले लाये हुए आहार के लिये अपने साथी साधुओं को आमंत्रण देता हूं। (६) निमंत्रणा - आहार लाने के लिये अपने साथी साधुओं को निमंत्रण देता हूं या पूछता हूं। (१०) उपसंपद् - ज्ञान आदि प्राप्त करने के लिये मैं अपना गच्छ छोड़कर किसी विशेष ज्ञान वाले गुरु का आश्रय लेता हूं।
मुझ सर्वथा परिग्रह के त्यागी, छः काया के रक्षक संयमस्थित मुनि के लिये बावन बातें आचरण के अयोग्य, अकल्पनीय तथा अनाचीर्ण बतलाई गई है जिनका मैं परिहार करता हूं। वे इस प्रकार हैं- ( १ ) औद्देशिक—साधु के निमित्त से तैयार किये गये वस्त्र, पात्र, मकान, आहार आदि स्वीकार कर सेवन करना । (२) क्रीतकृत - साधु के लिये आहार आदि मोल लिया गया हो उसका सेवन करना । (३) नियाग – आहार पानी के लिये आमंत्रित होकर गृहस्थ के घर से भिक्षा लाना । (४) अभ्याहत – घर या गांव से सामने लाया हुआ आहार लेना । (५) रात्रि भोजन - रात्रि में आहार लेना या दिन में लाया हुआ रात में खाना । (६) स्नान - देश या सर्व स्नान करना । (७) गंध - चन्दन आदि सुगंधित वस्तुओं का सेवन करना । (८) माल्य – पुष्पमाला का सेवन करना । ( ६ ) विजन - पंखे आदि से हवा लेना । (१०) सन्निधि - गुड़ घी आदि वस्तुओं का संचय करना । ( ११ ) गृहिमात्र – गृहस्थ के बर्तनों में भोजन करना । (१२) राजपिंड - राजा के लिये तैयार किया गया आहार लेना। (१३) किमिच्छिक — 'तुमको क्या चाहिये ?' – ऐसा याचक से पूछकर जहां उसकी इच्छानुसार दान दिया जाता है ऐसी दानशाला आदि से आहार लेना । (१४) संबाधन – अस्थि, मांस, त्वचा और रोम के लिये सुखकारी मर्दन अर्थात् हाथ पैर आदि अवयवों को दबाना । (१५) दन्त प्रधावन – अंगुली आदि से दांत साफ करना । (१६) संप्रश्न - गृहस्थ से कुशल आदि रूप सावध प्रश्न पूछना । ( १७ ) देह प्रलोकन - दर्पण आदि में अपना शरीर देखना । (१८) अष्टापद नालिका–नाली से पाशे फैंककर या अन्यथा जुआ खेलना । (१६) छत्रधारण – स्वयं छत्र धारण करना या कराना । (२०) चिकित्सा - रोग का ईलाज करना या बलवर्धक औषधियों का सेवन करना । (२१) उपानह— जूते मौजे आदि पहिनना । (२२) आरंभ - अग्नि का आरंभ करना । (२३) शय्यातर पिंड — शय्या, मकान आदि देने वाले गृहस्थ के घर से आहार लेना । (२४) आसन्दी - बेंत आदि के बने हुए आसन पर बैठना । (२५) पर्यंक - पलंग, खाट आदि का उपयोग करना । (२६) गृहान्तर निषद्या – गृहस्थ के घर जाकर बैठना या दो घरों के बीच में बैठना । (२७) गात्रोद्वर्तन – मैल उतारने के लिये शरीर पर उबटन करना । (२८) गृही वैयावृत्य – गृहस्थ की सेवा लेना । (२६) आजीववृत्तिता - जाति, कुल आदि बताकर भिक्षा लेना । (३०) तप्तानिवृत्तभोजित्व - मिश्र पानी का भोगना । (३१) आतुर स्मरण - भूख आदि से पीड़ित होने पर पहले भोगे हुए भोज्य पदार्थों को याद करना । (३२) सचित्त - सचित्त मूले का सेवन करना । ( ३३ ) सचित्त - अदरख का सेवन करना । ( ३४ ) सचित्त - इक्षुखंड (गंडेरी) का सेवन करना । (३५) कन्द - वज्रकंद आदि कंदों का सेवन करना । (३६) सचित्त - मूल (जड़) का सेवन करना । ( ३७ ) सचित्त- आम, नींबू आदि सचित्त फलों का सेवन करना । (३८) सचित्त - तिल आदि सचित्त बीजों का सेवन करना । ( ३६ ) सचित्त—संचल नमक का सेवन करना । (४०) सचित्त - सैंधव नमक का सेवन करना । ( ४१ ) सचित्त—रूमा लवण का सेवन करना । (४२) सचित्त - समुद्री नमक का सेवन करना । (४३) सचित्त—ऊपर नमक का सेवन करना । (४४) सचित्त - काले नमक का सेवन करना । (४५)
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