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उद्वेलित करती जाती हैं। अपने मानस तंत्र की उस उथल-पुथल में कभी-कभी साधक इतना आकुल-व्याकुल हो जाता है कि उसे आगे का कोई मार्ग सूझ नहीं पड़ता है । उस समय में साधक अपनी मन की वृत्तियों को एकाग्र बनाने का प्रयत्न करता है तो उसको सफलता नहीं मिलती है। प्रयत्नों का बल अधिक होता है किन्तु सफलता बहुत कम। उस एकाग्रता के अभाव में कई बार साधक तनाव और थकावट का अनुभव करता है और घबराहट में यह सोच लेता है कि अब साधनामार्ग में आगे प्रगति करना संभव नहीं है। कई साधक इस स्तर पर निराश होकर अपनी अन्तरात्मा में प्रवेश करने के अपने प्रयत्न को ही त्याग देते हैं। इससे विपरीत कई साधकों को ऐसा भ्रम हो जाता है कि अपनी साधना की प्रारंभिक अथवा सामान्य स्थिति में ही जैसे वे समाधिस्थ हो गये हों। क्योंकि वे शान्ति के चन्द क्षणों का रसास्वादन कर लेते हैं। उस सामान्य आभास के कारण उन्हें अहं का आच्छादन ढक लेता है। इस कारण वे कई प्रकार की भ्रान्तियों के शिकार बन जाते हैं। वे अपनी स्थूल परिधि को ही सूक्ष्म परिधि मान लेते हैं । इस प्रकार के भ्रम से ग्रस्त होकर वे साधक अपने मानस तंत्र का कुछ नियंत्रण करते हुए भी अपनी आगे की प्रगति को अवरुद्ध बना लेते हैं । क्योंकि स्थूल परिधि में अपेक्षाकृत सन्तोष और समय की वृद्धि को ही वे समाधि की वृद्धि मान लेते हैं जिसके कारण अदम्य उत्साह से परिपूर्ण उनकी आन्तरिक वृत्तियाँ गंतव्य स्थान तक पहुँच जाने के भ्रम में शिथिल हो जाती हैं। उस शिथिलता के साथ उनकी दुर्बलता भी फूट पड़ती है । परिणाम स्वरूप यत्किंचित् साधी हुई साधना की प्रगति भी समाप्त हो जाती है और गतिशीलता कुंठित बन जाती है। इसलिए साधकों को अपनी साधना के क्षेत्र में प्रत्येक पल दृढ़ संकल्प के साथ निश्चित ध्येय की प्राप्ति हेतु सदैव उत्साहित बने रहना चाहिये ।
साधक को चाहिये कि साधना के दौरान जब निराशा और दुर्बलता के ऐसे क्षण आवें तो उन्हें वह आत्म विकास की अपनी महायात्रा का एक पड़ाव मानकर कुछ विराम ले ले और आत्म चिन्तन को प्रदीप्त बनाकर अपनी तनावपूर्ण एवं थकित मानसिकता को दूर हटा दे। यों समझे कि यह पड़ाव अपनी थकान मिटाने के लिए ही था। इस प्रकार ऐसे आने वाले प्रत्येक पड़ाव पर साधक अपनी दुर्बल होती हुई शक्तियों का पुनः संचय करे तथा परम उत्साह के साथ पुनः प्रस्थान कर 1 विफल वह साधक होता है जो ऐसे पड़ाव को आखिरी मंजिल मान लेता है । जिज्ञासु साधक तो विश्राम स्थल को यथोचित रीति से समझकर अपनी प्रगति -पिपासा को अधिक तीव्र बना लेता है तथा अधिक गरिमापूर्ण गति से आगे बढ़ चलता है । परन्तु स्थूल परिधि में विचरण करते हुए साधक को अपने मानस-तंत्र की उलझनों को सुलझाये बिना कुछ मिलेगा नहीं । ये उलझनें किन्हीं बाह्य साधनों अथवा बाहर की क्रियाओं द्वारा सुलझाई नहीं जा सकेगी। इन उलझनों को तो साधक को भीतर में ही समझनी होगी तथा अपनी साधना बल से ही सुलझानी पड़ेगी। साधक आई हुई निराशाजनक इन उलझनों का सम्यक् रीति से अवलोकन करें और उन ग्रंथियों को ध्यान में ले जिन की वजह से उलझनें सामने आई हुई हैं। ये ग्रन्थियाँ मुख्यतः अपनी ही मनोवृत्तियों की ग्रंथियाँ होती हैं जो एक या दूसरे कारण से ग्रथित हो जाती है । ग्रंथियों को देखते-परखते समय एकावधानता आवश्यक है। इसमें मन भी एकाग्र हो तो शरीर भी स्थिर रहे और ध्यानावस्थित चिन्तन का क्रम चले। तब उन ग्रंथियों के कारण भी स्पष्ट हो जायेंगे तो उन का निदान भी उभर कर सामने आ जायगा ।
ऐसा एकाग्र अवलोकन तभी सफल बन सकता है जब अहंभाव का विसर्जन कर दिया जाय । साधना का अहंभाव तो और भी घातक होता है। अहंभाव कई बार साधना की प्रगति के प्रति भ्रान्ति के कारण भी उत्पन्न होता है । कैसे भी हो, अहंभाव साधना की जड़ों पर ही कुठाराघात
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