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मुझे यदि साम्य योग की सम्पूर्णतः अवाप्ति करनी है तो वीतराग देवों द्वारा उपदेशित संयम और तप के मार्ग पर अपने पुरुषार्थ का प्रयोग करना होगा तथा उनकी आज्ञा में रहकर विषमता के इन पांचों कारणों को घटाना और मिटाना होगा। इस समग्र कारण -निवारण की एक ही रामबाण औषधि है कि मैं अपने मन को वश में करूं मन गतिशील अवश्य रहे और वह गतिशील रहेगा लेकिन उसकी गति सांसारिक विषयों में न रहकर आत्म विकास की ऊंचाइयों की ओर मुड़ जाय । मुझे अपने सारे पुरुषार्थ का प्रयोग यों समझिये कि इस एकाकी बिन्दु पर लगाना है। इस बिन्दु पर यदि मेरी एकाग्रता जम जाती है तो मैं मान सकता हूं कि मेरी सफलता की जड़ भी जम जाती है । कारण, मन का नियंत्रण ही वचन और काया के नियंत्रण में आसानी से ढल जाता है ।
( अब मेरी धारणा स्पष्ट हो जाती है कि मन को वश में करके मुझे क्या करना है ? इसी संदर्भ में मैं जान जाता हूं कि आत्म विकास के कई सोपान साध लेने पर भी जरा सी असावधानी किस प्रकार आत्मा को नीचे गिरा देती हैं ? मैं समझ जाता हूं कि गुणस्थानों में उन्नति करना एक प्रकार से तलहटी से पर्वत के शिखर पर चढ़ना है और गुणस्थान रूपी यों मानिये कि सोपान (सीढ़ियां लगे हुए हैं। तलहटी है केश्यात्व की निर्गुणी आत्मा की, कठिन विषमता के अंधकार की। पहले सोपान ऐसे आते हैं कि आत्मा का इन पर उतार-चढ़ाव बहुत होता रहता है क्योंकि मन को वश में करने का अभ्यास आत्मा आरंभ ही करती है। उस आरंभिक अवस्था में कभी आत्मा मन को वश में करके ऊपर चढ़ती है तो कभी मन उद्दंड बन कर उससे दूर छिटक जाता है और उसको नीचे गिरा देता है । अभ्यास की परिपक्कता के साथ ही इस अवस्था में सुधार होने लगता है जबकि मन का खतरा कई सोपानों की चढ़ाई तक बराबर बना रहता है। अतः मन को विशिष्ट आत्मिक प्राभाविकता के साथ विषमता निवारण के काम में लगाये रहना चाहिये ।
मैं यह मानकर चलता हूं कि मन जैसा कमर्ठ माध्यम भी दूसरा नहीं होता है। यदि वह किसी कार्य में पागल बन कर लग जाय तो सफलता साधकर ही चैन लेता है। उसका अर्थ है कि मेरी आत्मा अपने साध्य के प्रति सर्वथा एकनिष्ठ बन जाय और उसी निष्ठा के साथ अपने मन को जोड़ ले तो मैं अपने पुरुषार्थ को सफल बना सकता हूं।
योग शुद्धि और कषाय मुक्ति —यह अन्तिम लक्ष्य बन जाना चाहिये । यह शुद्धि और शुभता क्रमिक अभ्यास के साथ ही प्राप्त हो सकेगी। अशुभता से शुभता के इस क्रम को भी मुझे समझ लेना चाहिये। जैसे किसी के व्यवहार का यह रूप हो सकता है कि वह सबके साथ अपकार करता है—यहाँ तक कि अपना उपकार करने वाले के साथ भी वह अपकार करने से नहीं चूकता। वह कुछ सुधरे तो यह कर ले कि औरों के साथ अपकार करे, किन्तु अपना उपकार करने वाले के साथ तो अपकार न करे। अगला संशोधन यह हो सकता है कि वह किसी का अपकार न करे चाहे किसी का उपकार करे या नहीं करे। उसकी योग शुद्धि अधिक बढ़े तो वह सबका उपकार करने का व्रत ले सकता है कि वह किसी का अपकार कतई नहीं करेगा । अन्ततोगत्वा वह उस स्तर तक पहुंच सकता है कि उसे अपना अपकार करने वाले का भी उपकार ही करके हर्ष होगा। यह अशुभता से शुभता का क्रमिक विकास कहा जा सकता है जो योग शुद्धि की तरतमता के अनुसार लम्बे अभ्यास से या अल्पावधि में ही साधा जा सकता है। कषाय मुक्ति का क्रम तो इससे भी कठिन होता है कि यह आत्म विजय की समस्या होती है। यह भीतर का युद्ध बाहर के युद्ध से अत्यधिक जटिल एवं दुष्कर होता है।
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