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(२) सास्वादान सम्यक् दृष्टि गुणस्थान—जो आत्मा औपशमिक सम्यक्त्व वाली है किन्तु अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से सम्यक्त्व को छोड़ कर मिथ्यात्व की ओर झुकती है, वह आत्मा जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करती, तब तक सास्वादान सम्यक् दृष्टि कहलाती है। और उसकी इस प्रकार की अवस्था से इस दूसरे गुणस्थान का नाम और लक्षण है। यद्यपि आत्मा का झुकाव मिथ्यात्व की ओर होता है तथापि खीर खाकर उसका वमन करने वाले मनुष्य को खीर का विलक्षण स्वाद अनुभव में आता है, उसी प्रकार वैसी आत्मा को भी कुछ काल के लिये सम्यक्त्व गुण का आस्वाद अनुभव में आता है।
(३) मिश्र गुणस्थान—मिश्र मोहनीय कर्म के उदय से जब आत्मा की दृष्टि कुछ सम्यक् और कुछ मिथ्या रहती है, तब इस सम्यक् मिथ्या दृष्टि गुण स्थान (मिश्र) का अस्तित्व रहता है। इस में अनन्तानुबंधी कषाय का उदय नहीं रहने से आत्मा में शुद्धता तो मिथ्यात्व मोहनीय के अर्ध विशुद्ध पुंज का उदय हो जाने से अशुद्धता रहती है। जैसे गुड़ मिले हुए दही का स्वाद कुछ मीठा
और कुछ खट्टा होता है, वही अवस्था आत्मा के श्रद्धान् की होती है जो कुछ सच्चा और कुछ मिथ्या होता है। इस कारण से आत्मा वीतराग देवों द्वारा उपदेशित तत्त्वों पर न तो एकान्त रुचि रखती है
और न ही एकान्त अरुचि । जैसे नारियल वाले द्वीप के निवासी चावल नहीं जानते सो उसके स्वाद में न रुचि रखते है, न अरुचि, वही अवस्था आत्मा की इस गुणस्थान में वीतराग मार्ग पर होती है। किन्तु यह अवस्था अन्तर्मुहूर्त ही रहती है, फिर सम्यक्त्व या मिथ्यात्व इन दोनों में से जिसकी स्थिति प्रबल होती है उधर आत्मा मुड़ जाती है। अतः इस तीसरे गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही मानी गई है।
(४) अविरति सम्यक् दृष्टि गुणस्थान—जो आत्मा सम्यक् दृष्टि होकर भी किसी प्रकार के व्रत नियम को धारण नहीं कर सकती है, वह इस गुणस्थान में रहती है। सावध व्यापारों को छोड़ देना और पापजनक कार्यों से अलग हो जाना—यह विरति कहलाता है और यही चारित्र एवं व्रत होता है। इस गुणस्थान में आत्मा अविरति रूप रहती है जिसके सात प्रकार हो सकते हैं—जो लोग व्रतों को को न जानते हैं. न स्वीकारते हैं और न पालते हैं ऐसे साधारण लोग जो व्रतों को जानते नहीं.
रते नहीं किन्त पालते हैं ऐसे अपने आप निर्णय लेने वाले बाल तपस्वी जो व्रों को जानते नहीं किन्तु स्वीकारते हैं और स्वीकार करके पालते नहीं हैं ऐसे ढीले पासत्थे साधु संयम लेकर निभाते नहीं जिनको व्रतों का ज्ञान नहीं है किन्तु उनका स्वीकार और पालन बराबर करते हैं ऐसे अंगीतार्थ मुनि जो व्रतों को जानते हुए भी उनका स्वीकार तथा पालन नहीं करते जो व्रतों को जानते हुए भी उनका स्वीकार नहीं कर सकते किन्तु पालन करते हैं जो व्रतों को जान कर स्वीकार कर लेते हैं किन्तु बाद में उसका पालन नहीं कर सकते। व्रत की सफलता का रहस्य सम्यक् ज्ञान, सम्यग्ग्रहण तथा सम्यक पालन में निहित होता है किसी एक की भी कमी से व्रताराधन का परा फल नहीं होता है। उपरोक्त सात प्रकार के अविरतों में से पहले चार अविरत जीव तो मिथ्यादृष्टि ही हैं क्योंकि व्रतों का यथार्थ ज्ञान ही नहीं है। पिछले तीन प्रकार के अविरत सम्यक् दृष्टि हैं क्योंकि वे व्रतों का यथाविधि ग्रहण या पालन न कर सकने पर भी उन्हें अच्छी तरह जानते हैं। इस गुणस्थान में कोई औपशमिक सम्यक्त्व वाला होता है तो कोई क्षायिक सम्यक्त्व वाला। व्रतों के ज्ञान के बावजूद भी पालन आत्मा इसलिये नहीं करती कि उसमें अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहता है और उसके उदय में रहते चारित्र का ग्रहण और पालन अवरुद्ध रहता है।
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