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है । यह चारित्र प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है। इसके भी दो भेद कहे गये हैं— (१) निरतिचार छेदोपस्थापनिक – जो इत्वर सामायिक वाले शिष्य के एवं एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले साधुओं के व्रतों के आरोपण में होता है तथा (२) सातिचार छेदोपस्थापनिक – जो मूल गुणों की घात करने वाले साधुओं के व्रत के आरोपण में होता है ।
(३) परिहार विशुद्धि चारित्र - जिस चारित्र में परिहार तप विशेष से कर्म निर्जरा रूप शुद्धि होती है। इसमें अनैषणीय आदि का परित्याग विशेष रूप से शुद्ध होता है । स्वयं तीर्थंकर भगवान् के सामने पहले जिसने यह चारित्र अंगीकार किया हो, उसके पास ही यह प्रकार भी अंगीकार किया जाता है। नव साधुओं का गण परिहार तप अंगीकार करता है – इनमें से जो चार तप करते हैं, वे पारिहारिक कहलाते हैं। जो चार वैयावृत्य करते हैं, वे अनुपारिहारिक कहलाते हैं। परिहार तप का कल्प अठ्ठारह मास में पूर्ण होता है। इस तप के भी दो प्रकार हैं- ( १ ) निर्विश्यमानक परिहार तप-तप करने वाले पारिहारिक साधु निर्विश्यमानक कहलाते हैं और उनका चारित्र निर्विश्यमानक परिहार विशुद्धि चारित्र, एवं (२) निर्विष्टकायिक परिहार तप-तप करके वैयावृत्य करने वाले अनुपारिहारिक साधु और तप करने के बाद गुरु पद पर रहा हुआ साधु निर्विष्टकायिक कहलाता है तथा उसका चारित्र निर्विष्टकायिक परिहार विशुद्धि चारित्र ।
(४) सूक्ष्म सम्पराय चारित्र - जिस चारित्र में सम्पराय (कषाय ) सूक्ष्म अर्थात् संज्वलन लोभ का सूक्ष्म अंश रहता है। इसके दो भेद हैं – (१) विशुद्धयमान — क्षपक श्रेणी एवं उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर शुद्ध रहने से उनका चारित्र सूक्ष्म सम्पराय चारित्र शुद्ध्यमान कहलाता है, तथा (२) संक्लिश्यमान - उपशम श्रेणी से गिरते हुए साधु के परिणाम संक्लेशयुक्त होते हैं इसलिये उन का सूक्ष्म सम्पराय चारित्र संक्लिश्यमान कहलाता है ।
(५) यथाख्यात चारित्र - सर्वथा कषाय का उदय न होने से अतिचार रहित पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र यथाख्यात चारित्र कहलाता है। यह अकषायी साधु का निरतिचार यथार्थ चारित्र होता है। इसके भी दो भेद हैं— छद्मस्थ यथाख्यात व केवली यथाख्यात इन दोनों के भी दो-दो प्रकार हैं (१) जो चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से प्राप्त होता है वह उपशांत छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र होता है (२) जो चारित्र मोहनीय कर्म की पूर्ण प्रकृतियों के क्षय से प्राप्त होता है साथ ही अप्रतिपाति भी होता है यह केवल ज्ञान के पूर्व की अवस्था होती है।
संयम में बाधक चारित्र कथा को विकथा कहते हैं । चारित्र विकथा के सात भेद हैं – (१) स्त्री कथा काम विकार को बढ़ाने वाली स्त्रियों से सम्बन्धित चर्चा करना जिसमें प्रशंसा और निन्दा दोनों शामिल है। यह जाति कथा, कुल कथा, रूप कथा और वेशकथा के रूप में हो सकती है। स्त्री कथा करने व सुनने वालों को मोह की उत्पत्ति होती है और लोक में भी निन्दा होती है । इससे सूत्र और अर्थ के ज्ञान में हानि होती है, ब्रह्मचर्य में दोष लगता है, संयम से पतन होता है तथा साधु वेश में रहकर अनाचार सेवन करके कुलिंगी हो जाता है ।
(२) भक्त (भात) कथा - आहार सम्बन्धी चर्चा करने से उसमें गृद्धि होती है और आहार किये बिना ही गृद्धि (आसक्ति) के कारण साधु को दोष लगते हैं। इससे लोकनिन्दा भी होती है कि यह साधु जितेन्द्रिय नहीं है । स्वाध्याय, ध्यान आदि छोड़कर आहार की चर्चा करता है । आसक्ति
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