________________
सूत्र आठवां
मैं ज्ञानपुंज हूं, समत्व योगी हूं। मेरी आत्मा में अज्ञान आया हुआ है, ज्ञान मूल में है और वह ज्ञान भी सामान्य नहीं, अनन्त ज्ञान है। इसीलिये मैं ज्ञानी ही नहीं; ज्ञानपुंज हूं।
मैं ज्ञानपुंज हूं, अपार ज्ञान का धारक हूं। अज्ञान इस सांसारिकता में मेरे आत्म स्वरूप से संलग्न हुआ है और उसने मेरी ज्ञान शक्ति को आछन्न कर दी है, किन्तु उस अज्ञान को दूर कर देने का सामर्थ्य भी मेरे ही भीतर रहा हुआ है—अंधकार को समाप्त कर देने वाला प्रकाश भी मेरी ही आन्तरिकता में समाया हुआ है। मैं उस प्रकाश का आह्वान करूं -उसे अनावृत्त करने का पुरुषार्थ करूं तो मैं प्रकाश पुंज बन सकता हूं, ज्ञानपुंज हो सकता हूं। ज्ञान पुंज ही प्रकाश पुंज होता है।
___ मैं ज्ञानपुंज हूं और उसकी ही सम्पूर्ति मे मैं समत्व योगी भी हूं। मेरा सम्यक् ज्ञान ही मेरा पथ दर्शक बनकर मुझे समत्व योग तक पहुंचाता है—समता रस का पान कराता है। मैं अपने ही ज्ञान के उत्तरोत्तर उर्ध्वगामी सोपानों पर आरूढ़ होता हुआ समत्व को प्राप्त करता हूं तो शिखर पर पहुंच कर समत्व-योगी बन जाता हूं।
मैं ज्ञानपुंज हूं, समत्व योगी हूं। मेरा ज्ञान ही चारित्र में ढलता है, मुझे चारित्र्यशील बनाता है और ज्ञान एवं चारित्र का गतिशील सामंजस्य स्थापित कर देता है। मेरा ज्ञान मेरी आत्मा की आंखें बन जाता है और मेरा चारित्र उसके सशक्त पांव तब समता के मार्ग पर उसकी दौड़ आसान हो जाती है। मेरी आत्मा तब समतावादी से समता धारी और समता धा समतादर्शी हो जाना ही समत्त्व योग की चरम परिणति होती है। मैं समत्व योगी हो जाता हैं।
___ मैं समत्व योगी हूं। इसी योग के सुफल स्वरूप मुझे अमिट शान्ति मिलती है और मिलता है अक्षय सुख । उस शान्ति और सुख का मैं तब शाश्वत धनी हो जाता हूं। वह शान्ति मुझसे फिर कभी विलग नहीं होती, वह सुख मुझे फिर कभी नहीं छोड़ता-सदा शान्ति, सदा सुख मेरी ज्योतिर्मयी आत्मा के सतत साथी बन जाते हैं।
__ मैं समत्व योगी होता हूं तो सबको-सभी जीवों एवं पदार्थों को यथावत् रूप में समता की दृष्टि से देखता हूं, सबका हित चिन्तन करता हूं और अभिलाषा रखता हूं कि सभी अपने सम्यक् ज्ञान को जगावें, सम्यक् चारित्र को सक्रिय बनावें और समता के प्रशस्त पथ पर बढ़ चलें।
मैं ज्ञानपुंज होना चाहता हूं और समत्व योग तक सफलता पूर्वक पहुंचना चाहता हूं, इसी कारण अपने लिये भी चाहता हूं और सभी भव्य जीवों के लिये भी चाहता हूं कि ज्ञान और क्रिया (चारित्र) का श्रेष्ठ समन्वय किया जाय और दोनों को एकरूपता में ढाल कर आत्मविकास का शक्तिशाली माध्यम बना दें।
___ मैं अपने ज्ञान और समता (दया या क्रिया) के संयोग से जानता हूं कि पहले ज्ञान और फिर दया (क्रिया) की आवश्यकता होती है क्योंकि मैं अपने ज्ञान के प्रकाश में ही सुयोग्य क्रिया का
३५७