________________
महानिर्जरा वाला होता है और पुनः उत्त्पन्न न होने से महापर्यवसान अर्थात् आत्यन्तिक अन्त वाला होता है। इसी के पांच बोल इस प्रकार भी हैं –(१) नवदीक्षित साधु-थोड़े समय की दीक्षा पर्याय वाले (२) कुल—एक आचार्य की शिष्य मंडली को कुल कहते हैं। (३) गण—कुल के समुदाय को गण कहते हैं। (४) संघ—गणों के समुदाय को संध कहते हैं। एवं (५) साधर्मिक–लिंग और प्रवचन की अपेक्षा से समान धर्म वाला साधु साधर्मिक कहा जाता है, इस प्रकार इन पांचों की ग्लानिरहित बहुमानपूर्वक वैयावृत्य करने वाला साधु महानिर्जरा और महापर्यवसान् वाला होता है।
यों वैयावृत्य के दस भेद बताये गये हैं जिनमें उपरोक्त दस बोलों का समावेश हो जाता है—(१) आचार्य (२) उपाध्याय (३) स्थविर (४) तपस्वी (५) ग्लान (६) शेक्ष (नवदीक्षित) (७) कुल (८) गण (E) संघ तथा (१०) साधर्मिक की वैयावृत्य करना। अपने से बड़े या असमर्थ की सेवा सुश्रूषा का दूसरा नाम ही वैयावृत्य है। इन दस भेदों में भी पीछे के चार भेद व्यक्ति वाचक से अधिक समूहवाचक है और इनकी सेवा में सामूहिक दृष्टिकोण का समावेश करना होता है। कुल, गण या संघ का वैयावृत्य व्यक्ति से अधिक विस्तृत रूप का होता है और यही वैयावृत्य अप्रत्यक्ष रूप से जब सम्पूर्ण विश्व के प्रति होता है तो वह सेवा का विशालतम रूप होता है।
मैं ऐसे वैयावृत्य और सेवा धर्म में अपने आपको इतना तन्मय बनाना चाहता हूं कि अन्ततोगत्वा मैं अपने आप तक को भी भूल जाऊं -सेवा की वेदी पर अपने आपको विसर्जित कर दूं। यह आत्म विसर्जन सर्वोत्कृष्ट तप होगा जो आत्म कल्याण तो करेगा ही किन्तु विश्व कल्याण की भी सुदृढ़ पृष्ठभूमि का निर्माण कर देगा। योगियों को भी अगम्य सेवा धर्म की आराधना एवं अनुभूति अति विशिष्ठ ही होती है।
आत्म चिन्तन का अध्याय ___ मैं स्वाध्याय तप की अचिन्त्य महिमा मानता हूं, क्योंकि मेरे 'मैं' से इसका गहरा सम्बन्ध होता है तथा उसके रूपान्तरण का भी यह तप सबल माध्यम बनता है। स्वाध्याय शब्द स्व+ अधि+ अय से मिल कर बना है जिसका अर्थ होता है अपने में गमन करना अर्थात् आत्मा में रमण करना-आत्म चिन्तन करना। इसे आत्म चिन्तन का अध्याय कह सकते है और साथ ही यह अध्याय आत्म चिन्तन के लिये भी हो। आत्मा का चिन्तन तथा आत्मा के लिये चिन्तन-इन दोनों का समावेश स्वाध्याय में हो जाता है।
मैं अपनी आत्मा का चिन्तन करता हूं इसका अभिप्राय यह होगा कि मैं अपनी आत्मा के मूल स्वरूप का चिन्तन करता हूं—उस में निहित अनन्त सुख और अनन्त वीर्य का चिन्तन करता हूं तथा उसके परम प्रताप एवं सर्वशक्तिमत्ता का चिन्तन करता हूं कि वह जागृत होकर सक्रिय हो और सर्वोच्च विकास का पुरुषार्थ करे । मैं अपनी आत्मा के लिये चिन्तन करता हूं जिसका अर्थ होगा कि मैं उन शास्त्रों, सूत्रों अथवा ग्रंथों का पठन और मनन करता हूं जो आत्म विकास की सही दिशा का ज्ञान देते है। इस रूप में स्वाध्याय तप का सम्बन्ध मूलतः आध्यात्मिक याने आत्मा के प्रति होता है। आन्तरिक चिन्तन और बाह्य अध्ययन दोनों का लक्ष्य एक ही है।
इस आध्यात्मिक अध्ययन को स्वाध्याय का बाह्य रूप मानते हुए इसके पांच भेद बताये गये हैं -
३४१