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(२) विनीत प्रारंभ किये हुए काम को नहीं छोड़ता, चंचलता नहीं लाता, जल्दी-जल्दी नहीं चलता किन्तु विनयपूर्वक धीरे-धीरे चलता है एक जगह बैठ कर वह हाथ पैर आदि अंगों को भी नहीं हिलाता है। वह असत्य, कठोर तथा अविचारित वचन नहीं बोलता एवं एक काम को पूरा किये बिना दूसरा काम शुरू नहीं करता ।
रखता ।
(३) विनीत सरल होता है तथा अपने गुरु जनों के साथ छल नहीं करता ।
(४) विनीत कौतूहल - क्रीड़ा से सदा दूर रहता है और खेल तमाशे देखने की लालसा नहीं
(५) विनीत अपनी छोटी-सी भूल को भी दूर करने का यत्न करता है और किसी का अपमान नहीं करता ।
दूर रहता है।
(६) विनीत क्रोध नहीं करता एवं क्रोध को पैदा करने वाले कारणों से (७) विनीत मित्र का प्रत्युपकार करता है और कभी भी कृतघ्न नहीं बनता । (८) विनीत विद्या पढ़कर अभिमान नहीं करता किन्तु जैसे फलों से लदने पर वृक्ष नीचे की ओर झुक जाता है, उसी प्रकार विद्या रूपी फल को प्राप्त करके वह विशेष नम्रता धारण कर लेता
है ।
(६) विनीत किसी समय आचार्य आदि द्वारा किसी प्रकार की स्खलना (भूल) हो जाने पर भी उनका तिरस्कार या अपमान नहीं करता ।
(१०) विनीत बड़े से बड़ा अपराध मित्रों द्वारा हो जाने पर भी कृतज्ञता दिखाते हुए उन पर क्रोध नहीं करता ।
(११) विनीत अप्रिय मित्र का भी पीठ पीछे दोष प्रकट नहीं करता, अपितु उनके लिये भी कल्याणकारी वचन ही बोलता है ।
(१२) विनीत कलह और क्लेश (डमर) से सदा दूर रहता है ।
(१३) विनीत कभी भी अपना कुलीनपना नहीं छोड़ता और अपने को सौंपे हुए काम को
पूरा करता है।
फिरता ।
(१४) विनीत ज्ञानवान् होता है तथा किसी समय बुरे विचारों के आ जाने पर भी वह कुकृत्य में प्रवृत्ति नहीं करता । तथा
(१५) विनीत बिना कारण गुरुजनों के निकट या दूसरी जगह इधर उधर नहीं घूमता
इस प्रकार के गुणों से युक्त पुरुष विनीत पुरुष कहलाता है ।
सेवा की तन्मयता
मैं जानता हूं कि सेवा धर्म को परम गहन तथा योगियों के लिये भी अगम्य कहा गया है । इसी से इसकी महत्ता स्पष्ट है । इसे ही नववें क्रम पर वैयावृत्य तप कहा गया है। धर्म साधन के लिये गुरु, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित आदि को विधिपूर्वक आहार आदि लाकर देना तथा उन्हें संयम यथाशक्ति सहायता देना वैयावृत्य तप कहलाता है ।
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