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भी उसे अपने लक्ष्य एवं आदर्श से विस्मृत नहीं बनाना चाहिये । आध्यात्मिक जीवन की ही यथोचित सम्यक् पूर्ति उसके व्यावहारिक जीवन में भी होनी चाहिये। फिर बार-बार जो एक जीवन से दूसरे जीवन में भावनात्मक प्रत्यावर्तन होता रहेगा, उसमें भावनात्मक परिवर्तन एवं उच्चतरता की अपेक्षा रहेगी। तब यह प्रत्यावर्तन एक दूसरे का सम्पूरक बन जायेगा बल्कि यों कहें कि दोनों जीवन आध्यात्मिकता से ओतप्रोत होने लगेंगे । व्यावहारिक जीवन में भी आदर्श एवं लक्ष्य के अनुकूल आचरण का विस्तार हो जायेगा ।
भविष्य के निर्धारण के प्रति तब साधक का सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित होने लगेगा । तब उसकी संकल्प शक्ति भी बलवती होने लगेगी। जब वह व्यावहारिक जीवन में लौटेगा, तब पहले की तरह विषम परिस्थितियों के सामने झुकेगा या गिरेगा नहीं। उनसे सम्हल कर चलेगा, अपितु उन्हें सुधारने का सत्प्रयास भी करेगा। उसकी इस सजग वृत्ति से उसके व्यावहारिक जीवन में भी लोकोपकार की भावना पैदा होगी। वह सोचेगा कि जिस लक्ष्य एवं आदर्श को मैं उत्थानकारी मानता हूँ और जिस दिशा में मैं गति कर रहा हूँ, क्यों नहीं प्रत्येक मानव भी उस लक्ष्य और आदर्श को उत्थानकारी माने और क्यों नहीं, प्रत्येक मानव उसी दिशा में गति करे ? यह उसकी लोकोपकार की भावना होगी। इस दृष्टि से वह अपने आध्यात्मिक जीवन में अपनी आत्मिक उच्चता का पुरुषार्थ करेगा तो उसका वही पुरुषार्थ उसके व्यावहारिक जीवन में प्रत्येक मानव के लिए कल्याणकारी चरण बन जायेगा । समुच्चय रूप से इस परिप्रेक्ष्य में तब एक साधक अपने भविष्य का निर्धारण समतापूर्वक करना चाहेगा।
आध्यात्मिक दृष्टि से साधक अपने भविष्य का निर्धारण इस रूप में करना चाहेगा कि उसकी साधना विस्तृत और व्यापक बने। इसका अर्थ है कि उसकी साधना अव्यक्त रूप से उसके व्यावहारिक जीवन में भी स्थान पावे और फैले । आध्यात्मिक जीवन से पुनः अपने व्यावहारिक जीवन में लौटते समय उसको अपने क्रियाकलापों में सबसे पहले प्रबलतम संकल्प के साथ-साथ सामयिक निश्चिंतता एवं समय की नियमितता पर विशेष ध्यान देना होगा। क्योंकि उसी आधार पर वह अपने चौबीसों घंटों का कार्यक्रम निश्चित कर पायेगा। आगे के कार्यक्रम का निर्धारण उसे साधना से उठते ही कर लेना चाहिये जो पुनः साधना में अवस्थित होने तक का हो। इस कार्यक्रम को इस प्रकार निश्चित करना चाहिये कि उसमें प्रत्येक मिनिट का हिसाब हो । एक भी मिनिट न आलस्य में खोया जाय और न एक भी मिनिट का दुरुपयोग किया जाय। इससे आगे बढ़कर यह निश्चय किया जाय कि अधिकाधिक समय स्व-पर लोक-कल्याण में नियोजित हो । ज्यों-ज्यों साधना का क्रम सघन होता जाय, त्यों-त्यों स्व- पर कल्याण की निष्ठा भी प्रबल बनती जाय । साधक के जीवन में तब वह स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जहाँ उसके दोनों प्रकार के जीवनों में गहरा सामंजस्य पैदा हो जाय। उसी स्थिति में दोनों जीवन अपने वास्तविक अर्थ में एक दूसरे के सम्पूरक बन सकेंगे। फिर दैहिक चिन्ताओं से निवृत्ति भी की जा सकेगी तो निर्वाह हेतु व्यवसाय का संचालन भी हो सकेगा, तब भी भावनात्मक लक्ष्य सुस्थिर बना रहेगा और प्रतिपल आत्म चिन्तन की वृत्ति ही प्रबल एवं मुखर बनती जायेगी ।
फिर साधक को अपने अगले चौबीस घंटों का पक्का कार्यक्रम भी बनाना चाहिये । साधना के समय पिछले चौबीस घंटों का आलोचनात्मक लेखा-जोखा भी लेना चाहिये। उदाहरणार्थ जब
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