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आत्मा कर्म बंधन और कर्म मुक्ति के विकल्पों से परे हो जाती है। वह अपनी कुशल बुद्धि से जिस काम को भी करती है, अन्य व्यक्ति व समाज भी उसको ही करें तथा जिस काम को वह बिल्कुल नहीं करती है, अन्य व्यक्ति व समाज भी उसको बिल्कुल नहीं करे। अपने जीवन की समस्त वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों में समूचे रूप अहिंसा का आचरण करने के उपरान्त आत्मा को ऐसी जागरूक एवं कुशल बुद्धि की प्राप्ति होती है ।
अहिंसा के आचरण के लिये यह आधारगत चिन्तन होना चाहिये कि सभी जीवों को अपनी आयु प्रिय है, वे सुख चाहते हैं और दुःख से द्वेष करते हैं। उन्हें वध अप्रिय लगता है तथा जीवन प्रिय लगता है, अतएव किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये । जिस प्रकार तुम्हें दुःख अप्रिय लगता है, उसी प्रकार संसार के सभी जीवों को भी दुःख अप्रिय लगता है। ऐसा जानकर अपनी आत्मा की उपमा से तुम्हें सभी प्राणियों पर आदर और उपयोग के साथ दया करनी चाहिये । यह जीव हिंसा की ग्रंथ (गांठ) और अष्ट कर्मों का बंध है । यही मोह है, यही मृत्यु है और यही नरक है। अतः मैं अहिंसा के निषेध रूप से दूर रहकर उसके रक्षा और दया रूप विधि रूप का पूर्णतः पालन करूंगा, जिससे मेरा आचार-विचार अहिंसामय हो जायगा ।
संयम अहिंसामय आचरण की पृष्ठ भूमि पर ही सुदृढ बनता है— ऐसी मेरी मान्यता है । सर्व प्रकार के सावद्य व्यापार से निवृत्त होना संयम है। पांच आश्रव से निवृत्ति, पांच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषाय पर विजय और तीन दंड से विरति संयम की साधना द्वारा ही संभव बनती है । संयम के सत्रह भेद कहे गये हैं—
(१) पृथ्वीकाय संयम - तीन करण तीन योग ( मन, वचन काया से न करना, न करवाना और न अनुमोदन करना) से पृथ्वी काय के जीवों की विराधना न करना ।
(२) अपकाय संयम - अपकाय (पानी) के जीवों की हिंसा नहीं करना । (३) तेजस्काय संयम - तेजस्काय (अग्नि) के जीवों की हिंसा नहीं करना । (४) वायुकाय संयम - वायुकाय (हवा) के जीवों की हिंसा नहीं करना ।
(५) वनस्पतिकाय संयम — वनस्पति काय (पेड़-पौधे आदि) के जीवों की हिंसा नहीं
करना ।
(६) द्वीन्द्रिय संयम — दो इन्द्रियों वाले जीवों की हिंसा नहीं करना । (७) त्रीन्द्रिय संयम - तीन इन्द्रियों वाले जीवों की हिंसा नहीं करना । (८) चतुरिन्द्रिय संयम – चार इन्द्रियों वाले जीवों की हिंसा नहीं करना । (E) पंचेन्द्रिय संयम - पांच इन्द्रियों वाले जीवों की हिंसा नहीं करना ।
(१०) अजीव संयम – अजीव होने पर भी जिन वस्तुओं को ग्रहण करने से असंयम होता है, उन्हें ग्रहण न करना अजीव संयम है। जैसे सोना, चांदी आदि धातुओं अथवा शस्त्रों को पास में नहीं रखना । पुस्तक, पत्र तथा संयम के दूसरे उपकरणों की प्रतिलेखना करते हुए यतनापूर्वक बिना ममत्व भाव के मर्यादा अनुसार रखना असंयम नहीं है। इसी तरह गृहीत वस्त्रादि का निरर्थक दुरुपयोग न करना अजीव संयम है।
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