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__ मैं अकेला नहीं रहता, कई प्राणियों के बीच में रहता हूं तो मेरा आत्म विकास उन सभी को प्रभावित करेगा जो कम से कम किसी भी रूप में मेरे सम्पर्क में आते हैं। मेरे जीवन की संयमितता एवं सन्तलितता से एक ओर तो उनकी जीवन समस्याएं सरल रूप से समाधान पायगी जो मेरे कारण उलझ जाती थी याने कि यदि मैं सदाशयी नहीं होता तो वे मेरे द्वारा कष्टित होकर जिन समस्याओं में गिरते, वे तो मिट गई। दूसरे, मैं उनके कष्टों में सहयोगी बना तो अन्यथा भी उत्त्पन्न उनकी समस्याओं के समाधान में मेरी सहायता उनको मिल गई। इस प्रकार मेरा अपना आत्म कल्याण बाह्य प्रभाव की दृष्टि से मुख्यतः लोकोपकारी हुआ। अतः मेरा आन्तरिक रूपान्तरण भीतर से जितना मुझे सुख पहुंचाने वाला बनता है, उससे भी अधिक मैं उस सुख को बाहर बांटने के प्रयास में तत्पर बनता हूं। यही आन्तरिक त्याग की प्रेरणा होती है।
__ एक फूल खिलकर सुवासित बनता है, एक आम्र वृक्ष सुमधुर फलों से लद जाता है या एक झरना अपने शीतल जल के साथ बहता है तो फूल, आम्रवृक्ष और झरने की ये उपलब्धियाँ क्या उनका अपना स्वार्थ होती हैं? क्या फूल स्वयं सुवास ग्रहण करता है, क्या आम्रवृक्ष स्वयं अपना फल चखता है या क्या झरना स्वयं अपने शीतल जल का स्वाद लेता है? सभी अनुभव करते हैं कि इन तीनों की उपलब्धियों का आनन्द तो दूसरे ही उठाते हैं। आनन्द उठाने के अलावा कोई उनको क्षति भी पहुंचाते हैं तो वे सब सह लेते हैं। इसी रूप में आत्म कल्याण का साधक भी यथार्थ दृष्टि से दूसरों को भी सुख पहुंचाता है। उसकी साधना जितने अंशों में समुन्नत बनती है, उतने ही अंशों में उसका त्याग भाव भी प्रखर बनता जाता है और वह तब पर-कल्याण या जगत् कल्याण के लिये सर्वस्व तक न्यौछावर कर देने के लिये सन्नद्ध हो जाता है।
___ अतः मेरे अपने आत्म कल्याण का अर्थ है एक ऐसी ज्योति का जलाना, जिसके प्रकाश में सभी अपना सन्मार्ग खोज लेने में आतुर हो उठते हैं। इसे अधिक से अधिक सीधा जगत् कल्याण न भी मानें तब भी परोक्ष रूप से वह जगत् कल्याण ही होता है। यही परोक्ष जगत् कल्याण आत्म विसर्जन के महान् त्याग के साथ तब प्रत्यक्ष जगत् कल्याण हो जाता है। अतः आध्यात्मिक स्व कल्याण में सदा ही पर—कल्याण सन्निहित होता है।
अब मैं यह प्रश्न उठाना चाहता हूं कि इतने विशाल जागतिक वातावरण पर मेरे आन्तरिक रूपान्तरण का कितना प्रभाव हो सकता है ? हमारा इतिहास ऐसे अगणित उदाहरणों से भरा पड़ा है, जब एक व्यक्तित्व की तेजस्विता ने सम्पूर्ण समाज को आन्दोलित कर दिया और उसे विकास की दिशा में आगे बढ़ने की सफल प्रेरणा दे दी। यही नहीं, एक व्यक्ति का आदर्श जीवन ऐसा ज्योतिस्तंभ बन गया कि वह युगों-युगों तक अपने आदर्श की प्रेरणा देता रहा है और आत्माभिमुखी व्यक्तियों में जीवन भरता रहा है। क्या वीतराग देवों की आत्म कल्याणक व भी हमारे हृदयों में नहीं गूंजती है और हमें एक सद्गृहस्थ, सत्साधक और संयमाराधक बनने की उत्प्रेरणा नहीं देती है? ताजा मिसाल महात्मा गांधी की लें कि क्या एक ही व्यक्ति ने पूरे भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति की बलिदान-भरी लगन नहीं जगादी? इससे क्या स्पष्ट नहीं हो जाता कि एक व्यक्ति का आन्तरिक रूपान्तरण एक देश तो क्या, सारे संसार को बदल सकता है। और यह परिवर्तन की धारा उसके अपने ही समय की सीमा में नहीं बंध जाती, अपितु उसके भौतिक जीवनान्त के पश्चात् भी युग युगों तक प्रवाहित होती रहती है तथा व्यापक रूप से वैसे महापुरूष का पुण्य स्मरण किया
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