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है। वर्तमान में आत्मा चूंकि उसके स्वभाव पूर्णतया रमण नहीं करती है या यों कहें कि वह जितनी विभाव में प्रगाढ़ रूप से विस्मृत बनी हुई है उतनी ही वह अपने स्वभाव से दूर है और उसी रूप में अपने धर्म से भी दूर है। अपने स्वाभाविक गुणों को वह जितने अंशों में ग्रहण करती जायगी, उतने ही अंशों में वह अपने धर्म के निकट पहुंचती जायगी । किन्तु उसने धर्म को प्राप्त कर लिया है – यह तभी कहा जायगा जब वह अपने विभाव को पूर्णतया समाप्त कर लेगी तथा सम्पूर्णतया अपने स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जायेगी । यही उसकी सिद्धावस्था होगी।
इस दृष्टि से अपने धर्म को प्राप्त कर लेना – यह आत्मा का लक्ष्य है— साध्य है । धर्म ऐसी अवस्था है जिसमें आत्मा को अन्तिम रूप से प्रतिष्ठित होना है । संसारी आत्माओं को इस रूप में अपने धर्म को प्राप्त करना है क्योंकि वे अपने धर्म या स्वभाव से अभी तक दूर हैं। इस प्रकार धर्म साध्य है, साधन नहीं। आत्मा को अपने धर्म को प्राप्त करने के लिये जिन साधनों को समझ कर अपनाने की आवश्यकता होती है, वे हैं महापुरुषों के उपदेश । इन उपदेशों के आधार पर आत्मा ऐसा पुरुषार्थ कर सकती है कि वह अपने धर्म के निकट पहुंचती चली जावे और एक दिन उसे प्राप्त कर ले।
विभाव मुक्ति अथवा स्वभाव प्राप्ति इस प्रकार आत्मा का धर्म हुआ जो कि उसका साध्य है । इसी प्रकार जो विविध उपदेश हैं, वे इस साध्य को प्राप्त कराने में आत्मा के लिये साधन रूप बन सकते हैं। पहली बात यह है कि आत्मा के सामने अपना साध्य स्पष्ट हो जाना चाहिए । फिर वह अपने विवेक से अपने साध्य के अनुकूल साधनों का चयन करे जिन्हें सामान्यतया विभिन्न धर्मों के रूप में जाना जाता है, वे स्वयं धर्म नहीं है उन्हें धर्मनीतियों का नाम दिया जा सकता है जो आत्मा को धर्म तक पहुंचाने का दावा करती हैं। इन धर्मनीतियों की परीक्षा इसी कसौटी पर की जा सकती है कि वे किस रूप में आत्मा को उसके साध्य की ओर प्रगतिशील बनाने की क्षमता रखती हैं। एक ईश्वरत्व तक पहुंचने के ये भिन्न-भिन्न मार्गों के रूप में जानी जा सकती हैं यदि उनमें आत्म-धर्म प्राप्ति रूप साध्य की स्पष्टता विद्यमान हो ।
धर्म और नीति समीक्षा
मन के स्वामी मनुष्य की प्रमुख शक्ति है विचार शक्ति। वह अपनी संस्कारिता, परम्परा या परिस्थितियों के अनुसार विचार करता है और निर्णय लेता है। उन विचारों और निर्णयों की वास्तविकता उसकी ज्ञान परिपक्कता पर आधारित होती है । यथार्थ का उसे जितना अधिक बोध होता है उतनी ही उसकी वैचारिकता और निर्णयशक्ति वास्तविक बनती है । सम्यक् ज्ञान और चरित्र के पुष्ट संयोग से विचारों का सम्यक्त्व अभिवृद्ध बनता है। अतः धर्म नीतियों की परख करते समय यह मानदंड सामने रखना होगा कि उनके उपदेशकों ने अपने जीवन की किस रूप में उच्चता प्राप्त की अथवा उनके जो दिये हुए उपदेश हमारे सामने हैं, वे आत्मोच्चता की किस स्थिति को प्रतिभासित करते है ? एक छोटी सी वस्तु भी जब क्रय की जाती है तो क्रेता उसकी अपनी बुद्धि के अनुसार परीक्षा करता है और वह वस्तु उसकी परीक्षा में खरी उतरती है तभी उसका वह क्रय करता है। तो आत्मोत्थान जैसे महान् साध्य के लिये उपयुक्त साधनों का चयन तो एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है क्योकि चयन में भ्रम या भूल रह जाय तो आत्म विकास की गति ही विगति बन जाती है तथा प्रगति का स्थान पतन ले लेता है। साधनों की परीक्षा बुद्धि - यह आत्मा की अपनी विशिष्टता
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