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मेरा अनुभव यह है कि स्वभाव चाहे जितना दब जाय, छिप जाय अथवा विस्मृत हो जाय—वह कभी भी सही अपनी झलक दिखाना नहीं छोड़ता है। मैंने महसूस किया है कि जब मैं कोई ऐसा विचार मन में लाता हूं, ऐसा वचन बोलता हूं अथवा ऐसा कार्य करना शुरू करता हूं जो अन्तर्मन से मेरी आत्मा नहीं चाहती-उसके विरुद्ध वह अपनी पहली आवाज जरूर उठाती है। यह दूसरी बात है कि मैं उस आवाज को अनसुनी कर दूं और अवांछित विचार, वचन या कार्य में प्रवृत्ति करता रहूं। यह पहली भीतरी आवाज आत्मा की आवाज होती है। इसी प्रकार ऐसे किसी विचार, वचन या कार्य में मेरी प्रवृत्ति होती है जो अन्तर्मन से मेरी आत्मा को अच्छा लगता है तो भीतर से एक अनूठे आनन्द की धारा फूटती है जिसका अनुभव संसार में महसूसे जाने सुख के अनुभव से अलग और अनूठा ही होता है। इस रूप में 'ना' या 'हाँ' की संकेतक आत्मा की आवाज का अनुभव मुझे ही नहीं, सभी को अवश्य होता होगा। बुरी आदत यही बन जाती है कि अधिकतर लोग आत्मा की आवाज को कुचलते हुए उन्मार्ग पर आगे बढ़ते चले जाते हैं।
आत्मा को क्या अच्छा लगता है और क्या बुरा—यह समझने-समझाने की अपेक्षा भी स्वानुभूति का विषय अधिक है। समझने-समझाने में तर्क-कुतर्क उठाये जा सकते हैं और केवल प्रमाणित करने की ही दृष्टि से अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा भी प्रमाणित किया जा सकता है किन्तु जब कोई एकाग्र जागरण के साथ भीतर झांकता और भीतर की आवाज को सुनता है तो सत्य उसके समक्ष प्रकाशित हुए बिना नहीं रहता। यों अच्छे-बुरे की जो लौकिक परिभाषाएं अथवा संवेदनाएं हैं, वे भी स्वानुभूति का धरातल बन सकती हैं। मैं सोचता हूं कि मैंने जब कभी किसी पीड़ा से कराहते हुए व्यक्ति को देखा होगा तो मेरे हृदय में करुणा और सहयोग का जो आवेग उठा होगा, उससे मुझे अवश्य ही अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव हुआ है। इसके विपरीत जब कभी मैंने अत्यन्त गुप्त रूप से भी किसी को कष्टित करने का कोई प्रपंच रचा होगा तो मेरी आत्मा ने पहले क्षण में मुझे धिक्कारा ही होगा। उस समय मेरे जागृत भाव रहे होंगे तो मैंने अपना हाथ उस प्रपंच से पीछे खीच लिया होगा अन्यथा उस आवाज को दबा कर मैं अपने उस कुकृत्य की दिशा में आगे बढ़ गया होऊंगा। ऐसी मनोदशा से सभी प्राणी गुजरते हैं किन्तु अन्तर यही रहता है कि जागृत उस आवाज को सुनते हैं, उसका अनुसरण करते हैं तथा आत्मा को बलशाली बनाते रहते हैं. अन्यथा मोहग्रस्त उस आवाज को क्या कुचलता है कि अपने गुण सम्पन्न जीवन को ही कुचलता रहता है और अपने आत्मस्वरूप को अधिकाधिक कलंकित बनाता रहता है।
स्वानुभूति से मैं जान लेता हूं कि आत्मा को क्या अच्छा लगता है और क्या बुरा । जो . 'अच्छा' अच्छा लगता है वह उस का स्वभाव होता है और जो 'अच्छा' भी उसे बुरा लगने लग जाता है अथवा जो 'बुरा' भी उसे अच्छा लगने लग जाता है, वह उसका विभाव हो जाता है। स्वभाव को जहां तक आत्मा स्मृति में रखती है और उसमें स्थित रहने का प्रयास करती है, वहां तक उसकी जागृत अवस्था ही समझी जानी चाहिये। इस जागृत अवस्था की न्यूनाधिक कई श्रेणियाँ हो सकती हैं। जब मेरी आत्मा भीतर से अपनी आवाज उठाती है और वह सामर्थ्यवान होती है तो अपने मन और अपनी इन्द्रियों को वैसा अनिच्छित कार्य करने से रोक देती है। यदि उसका इस प्रकार से रोकना सफल होता रहता है तो वह स्थायी रूप से अशुभ कार्यों से दूर रह जाती है। किन्तु यदि उसकी नियंत्रण शक्ति ढीली होती है तो वह अपने मन व इन्द्रियों को रोक नहीं पाती है। ऐसी आत्मा अपने ही मन और अपनी ही इन्द्रियों के पीछे घिसटती हुई चलने लगती है। उसकी
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