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वीतरागता की प्राप्ति संभव बन जाती है। जब आत्म-चिन्तन के क्षणों में सांसारिकता की दुरावस्था का भान होता है, सांसारिक सम्बन्धों एवं कामनाओं की तुच्छता अनुभव में आती है तथा विषय-कषाय जन्य कष्टों का सामना करना पड़ता है, तब वैराग्य की भावना उद्भूत होती है। वैराग्य की धारा में सांसारिकता की हेयता स्पष्ट हो जाती है। तब विरागी आत्मा संसार त्याग करके संयम के पुरुषार्थ में संयोजित हो जाती है। एकत्व आदि भावनाएं वैराग्य को प्रबल और प्रखर बनाती रहती है तथा आत्मा को आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित बनाये रखती है। आत्मा को धर्म की चिर शरण में ले जाने वाला वैराग्य होता है।
(१७) पुण्य-पुण्य यद्यपि कर्म बंधन है, फिर भी अपनी शुभता के कारण आत्म-विकास में एक सहयोगी की भूमिका निभाता है तथा संसारी आत्माओं को शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करने की सफल प्रेरणा देता रहता है। पुण्य को उस जहाज की उपमा दी गई है जिसमें सारी सुविधाओं के साथ बैठकर सरलतापूर्वक समुद्र पार किया जाता है। यह दूसरी बात है कि उप पार पहंचने पर जहाज को भी छोड़ देना पड़ता है। संसार रूपी महासमद्र को सरलता से पार कराने में पण्य कर्म ऐसे ही जहाज का रूप बन कर आत्मा को उत्थान के चरम बिंदु तक पहुंचाता है। पुण्य कर्म के उदय में आने पर जिस प्रचुर मात्रा में सुख सुविधाएं प्राप्त होती है, उनके बीच में बैठकर आत्मा अगर मूर्छित हो जाय तो वह पाप पंक में डूब जाती है किन्तु उन्हीं सुविधाओं को यदि वह अपने उत्थान मार्ग के अनुकूल बना लेती है तो वह अपने गंतव्य तक भी पहुंच सकती है।
(१८) सत्संग-एक कहावत है कि काले के पास गोरा बैठ जाय तो वह उसका वर्ण तो नहीं ले सकेगा मगर उसके 'लक्खण' जरूर ले लेगा। इसका अर्थ है कि संगति का जीवन पर भारी प्रभाव पड़ता है। जैसी संगति में मनुष्य रहता है, वैसे ही गुण वह अपना लेता है। इस दृष्टि से प्रकृति के इस तथ्य को ही ले लीजिये कि स्वाति नक्षत्र में आकाश से बरसी बूंद सीप के मुंह में पहुंच कर अनमोल मोती बन जाती है तो वही बूंद सर्प के मुंह में गिर कर मारक विष का रूप ले लेती है। फिर मनुष्य की तो बात ही क्या है ? इसीलिये सत्संग की महिमा गाई गई है। दुर्जनों का संसर्ग मनुष्य के मन को दुर्गुणों से भर देता है तो सत्पुरुषों के सम्पर्क में रहकर मनुष्य अपने मन का संताप ही नहीं मिटाता बल्कि अपने आपको सद्धर्ममय व सद्गुण-सम्पन्न भी बना लेता है। स्वल्प सत्संग भी मनुष्य का उसी रूप में कल्याण करता है जिस रूप में स्वल्प लवण सम्पूर्ण भोजन को सुस्वादु बना देता है। सत्संग सद्धर्थ का प्रेरक होता है।
(१६) क्षमा क्षमा को वीरों का भूषण बताया है, कायरों का नहीं। जो स्वयं आत्मशक्ति से सम्पन्न होता है, वहीं दूसरों को क्षमादान दे सकता है। क्रोध और प्रतिशोध की अग्नि का शमन करके क्षमा रूपी शीतल जल का जो सर्वदा और सर्वत्र सिंचन करता है, वह स्वयं ही महात्मा नहीं बनता बल्कि जिन्हें क्षमादान देता है, उन्हें भी अपने साथ स्व-पर कल्याण के मार्ग पर अग्रगामी बना देता है। क्षमापना से आत्मा को अत्यन्त आह्लाद का अनुभव होता है और क्षमावान अन्य किसी के अपकार को नहीं, उपकार को ही स्मृति में रखता है। क्षमा का ही दूसरा नाम सहनशीलता है और सभी तरह के संकटों को जीत लेना एक क्षमावान के ही सामर्थ्य में होता है, मनुष्य का आभूषण सद्गुण है, सद्गुणों का आभूषण ज्ञान तो ज्ञान का आभूषण क्षमा धर्म है। एक क्षमावान सर्व जीवों से अपने अपराधों की निश्छल भाव से क्षमा चाहता है और वैसे ही उदार भाव से सभी को क्षमा
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