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है और इस पथ पर चल पड़ना है। इसीलिये मैं कहता हूं कि मैं पुरुषार्थी हूं -दिशाहीन पुरुषार्थी नहीं, सुदिशा में सम्यक् रीति से अग्रगामी बनने वाला पुरुषार्थी—अपने साध्य को साध लेने वाला पुरुषार्थी।
___ मैं पुरुषार्थी बनता हूं तभी तो पराक्रमी होता हूं—पुरुषार्थ का उत्कृष्ट स्वरूप ही तो पराक्रम में परिवर्तित होता है। पुरुषार्थ प्रारंभिक रूप होता है तो पराक्रम उसी का विकसित रूप। तब मेरा पराक्रम वज्र स्वरूपी बन जाता है। वह किसी भी शक्ति के तोड़े नहीं टूटता और अति सिष्ट पराक्रम से कर्म तोड़े जाने पर अखंडित नहीं बचते। मेरी आत्मा का और सभी भव्य आत्माओं में ऐसा ही अनन्त पराक्रम और अनन्त पुरुषार्थ होता है।
आत्मा का ऐसा पराक्रम और पुरुषार्थ सदा आत्मा के ही हित में प्रयुक्त होता है –चाहे वह मेरी स्वयं की आत्मा हो अथवा अन्य किसी की भी आत्मा। आत्म-हित ही प्रत्येक आत्मा का श्रेष्ठ पराक्रम और सत्पुरुषार्थ होता है, अतः स्व-पर कल्याण ही पराक्रम और पुरुषार्थ की सुदिशा होती है। मैं पुरुषार्थी हूं, इस कारण हर समय चिन्तन करता रहता हूं और जांचता-परखता रहता हूं कि मेरा पुरुषार्थ सुदिशा में प्रगति कर रहा है अथवा नहीं। मेरी यह जागरुकता मेरे पुरुषार्थ की जागरुकता बन जाती है।
____ मुझे एक रूपक याद आ रहा है। एक फक्कड़ बाबा थे। उनके दो भक्त थे। एक दिन उन्होंने अपने भक्तों से पूछा-क्या तुम्हारी मेरे में पूरी आस्था है ? दोनों ने हृदय से कहा हमारी आप में पूर्ण आस्था है। आपके कथन को हम सत्य वचन मानते हैं। बाबा तब बोले—अच्छा, तो दोनों मेरे साथ चलो। बाबा के साथ दोनों चल पड़े। चलते-चलते बाबा एक बीहड़ जंगल में पहुंच गये। फिर वे एक पहाड़ पर चढ़ने लगे। दोनों भक्त भी उनके साथ चढ़ने लगे। बाबा का वाक्य उनके लिये प्रमाण था।
पहाड़ की चोटी पर चढ़कर बाबा ठहर गये। उन्होंने दोनों को पहाड़ की दूसरी तरफ का दृश्य दिखाया। पहाड़ के नीचे ही बड़े-बड़े गड्ढे और चौड़ी खाइयां थी। गड्ढों और खाइयों के आगे लोगों का बहुत बड़ा झुंड अस्त-व्यस्त अवस्था में दुःख-भाव से घूम रहा था। जमीन के ऊबड़-खाबड़पन में उन्हें कहीं निवास-योग्य स्थान नजर नहीं आ रहा था। चारों ओर भांति-भांति की असुविधाएं मुंह बाये खड़ी थी। वे बोले—यह दृश्य देख रहे हो न? दोनों ने हाँ, में उत्तर दिया तब बाबा ने ही पूछा—इसे देखकर तुम क्या सोचते हो? दोनों ही लोगों के हृदय उस झुंड की व्यथा से द्रवित हो उठे थे, अतः कहने लगे इन लोगों का दुःख दूर किया ही जाना चाहिये। बाबा प्रसन्न हो उठे, कहने लगे लेकिन जानते हो, यह दुःख दूर कैसे होगा? दोनों बाबा का आदेश सुनने के लिये मौन खड़े रहे।
बाबा तब अपनी पौरुषभरी आवाज में बोले—जिस पहाड़ की चोटी पर हम खड़े हैं, इस पूरे पहाड़ को खोद देना होगा और पास के गढ्ढों व खाइयों को उससे पाट देना होगा ताकि सारी भूमि समतल बन जाय और इन लोगों के लिये निवास-योग्य हो जाय। तब दोनों भक्तों का उत्तर एक नहीं रहा। पहला बोला–महाराज, पहाड़ को खोद डालना आसान काम नहीं है किन्तु मेरा पुरुषार्थ भी आसान काम करना नहीं चाहता। आसान काम तो किसी का भी पुरुषार्थ कर डालेगा, फिर मेरे पुरुषार्थ की क्या विशेषता? मैं आपके आदेश का पालन करने के लिये तत्पर हूं और
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