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सुख के शोध की यह अन्तर्यात्रा हमें आरंभ करनी होगी अपने ही मन से, क्योंकि यह मन बाह्य एवं आभ्यन्तर जगत् के मध्य की कड़ी है। आज यह मन बाहर के विषयों में ही भटक रहा है— इसको साधना पड़ेगा और उसे एकाग्र बनाकर भीतर गहराई में उतारना होगा। मन की ऐसी साधना ही अन्तर्यात्रा की साधना बन सकेगी। इसमें चित्तवृत्तियों पर नियंत्रण की क्षमता बढ़ानी होगी तो उनके संशोधन के विविध प्रयोग भी कार्यान्वित करने होंगे। चित्तवृत्तियाँ अशुभ योगों से शुभ योगों में प्रवृत्ति करे - यह कोई सरल कार्य नहीं है । फिर यह आत्मा भी अनन्त काल से वैभाविक वातावरण में चल रही है जिसके कारण चित्तवृत्तियों में यह परिवर्तन लाना सहज रूप से संभव नहीं है। विपथ पर दौड़ते हुए चित्त को नियंत्रण लेना एक भगीरथ कार्य है। कई साधकों कई प्रयोग इस हेतु किये हैं किन्तु उनके कई प्रयोग इस दिशा में विफल भी रहे हैं । कारण, जब तक आत्मा के मूल स्वभाव का सम्यक् ज्ञान नहीं हो तथा विपथ से मन को नियंत्रित करने की सम्यक् विधि अपनाई नहीं जाय, तब तक कोई भी प्रयोग सफल नहीं हो सकता। इस सम्बन्ध में वीतराग देवों ने संयमीय साधना की प्रकीर्णता के बाद अन्तरज्ञान को पाकर जो मनस्साधना एवं ध्यान का प्रयोग बताया है, उसी को केन्द्रस्थ बना कर साधना रूप अन्तर्यात्रा का श्रीगणेश किया जा सकता है।
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आज प्रायः सम्पूर्ण जीवन बाह्य यात्रा में ही व्यस्त बना हुआ है। चौबीसों घंटे, मनुष्य बहिर्दर्शन की दिशा में ही दौड़ रहा है। बाहर की प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ से उसे तनिक भी अवकाश नहीं है कि वह अन्तर्यात्रा के विभिन्न पहलुओं का ज्ञान भी करे। अतः अन्तर्यात्रा विषयक चिन्तन का अभाव है । किन्तु वर्तमान युग की विषमताओं से वह अवश्य घबरा उठा है। इस घबराहट ने उसके मन में यह विवशता जरूर पैदा कर दी है कि भीतर में सुख को खोजे । इस कारण वह आत्म चिन्तन की तरफ अव्यक्त रूप से मुड़ा है—यह कहा जा सकता है। उसकी इस मनोदशा में यदि आत्म समीक्षण की भावना जगाई जाय और मन को सन्नद्ध बनाया जाय तो वह अपनी अन्तर्यात्रा के विषय में चिन्तनशील बन सकेगा । चिन्तनशीलता की भूमिका पर यदि मनुष्य के मन को आरूढ़ कर दिया जाय तो निश्चय ही वह आत्म-साधना के प्रति आकृष्ट हो जायेगा ।
एक बार जब मनुष्य के मन की साधक के रूप में रचना हो जायगी, तब उसकी अन्तर्यात्रा की पिपासा अधिकाधिक तीव्र बनती जायेगी। मन की साधना में उसकी अभिरुचि भी बढ़ेगी एवं अनुभूति भी परिपुष्ट होगी। इसका वास्तविक कारण यह होगा कि उसके भीतर आनन्द का ऐसा स्रोत फूट निकलेगा जो उसे अनुपम लगेगा। इस आनन्द का रसास्वादन उसके अन्तःकरण में समुचित मनोभूमि का निर्माण करेगा जिसमें फिर अपनी चित्तवृत्तियों पर नियंत्रण कर लेना कठिन नहीं रह जायेगा । तब साधना में भी एक नई दृढ़ता की ज्योति जाग जायेगी ।
समीक्षण ध्यान साधना
मन की साधना के सम्बन्ध में अगणित प्रयोग प्रचलित हैं जैसे हठयोग, भक्तियोग, लय योग, कर्मयोग, सहज योग आदि। इनमें से सहज योग की साधना अवश्य अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी है जिसके माध्यम से तनाव मुक्ति एवं शान्ति से साक्षात्कार किया जा सकता है। किन्तु इतना अवश्य है कि किसी भी आत्मदर्शन की साधना की प्रारंभिक भूमिका मन की साधना ही होगी। मन की साधना में मुख्य रूप से चित्तवृत्तियों के नियंत्रण एवं संशोधन पर बल दिया गया है।
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