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लिये धूलि समान हो जायेंगे। सन्तोष धारण कर लेने पर लोभ मन्द होगा तो मेरी तृष्णा भी जीर्ण बनेगी तथा समुच्चय में परिग्रह के प्रति ही मेरा मूर्छा भाव घट जायगा। मैं सन्तोष से शान्ति प्राप्त करूंगा। शान्ति के साथ समस्त जीवों के प्रति मेरी प्रीति और धर्मानुरागिता रहेगी तथा सबकी मित्रता एवं लोकप्रियता मुझे मिलेगी। इतना होने पर भी मेरी विनम्रता नित प्रति बढ़ती रहेगी। यह सब सन्तोष का ही सुफल होगा।
मैं मान गया हूं कि क्षमा, नम्रता, सरलता और सन्तोष ये—चारों ही धर्म के द्वार हैं। सहज सरलता, सहज विनम्रता, दयालुता और अमत्सरता ये चार प्रकार के व्यवहार मानवीय कर्म हैं। इन के सुप्रभाव से मनुष्य पुनः मानव जीवन प्राप्त करता है। मैं यह भी मान गया हूं कि क्रोध, मान, माया और लोभ–ये चारों कषाय पाप की वृद्धि करने वाली हैं, अतः आत्मा का हित चाहने वाला साधक इन दोषों का परित्याग कर दे। धर्म का मूल विनय है और उसका अन्तिम फल मोक्ष है। जो मनुष्य क्रोधी अविवेकी, अभिमानी, दुर्वादी, कपटी और धूर्त है, वह संसार के प्रवाह में वैसे ही बहता रहता है जैसे जल के प्रवाह में काष्ठ ।
..मैं इस वीतराग वचन को अपने हृदय में धारण करके कि क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय अग्नि के समान समझूगा व इस आग्नि को बुझाने के लिये प्रतिपल सतर्क रहूंगा तथा दानशील, सदाचार और तप रूपी शीतल जल की इन कषायों पर निरन्तर वर्षा करता रहूंगा। यही मुक्ति का मार्ग होगा।
बंध और मोक्ष का कारण मन मैं कल्पना करूं कि एक रथ दौड़ रहा है जिसमें पांच घोड़े जुते हुए हैं। सारथी उस रथ को चला रहा है और रथ में बैठा हुआ है उसका स्वामी। अब मैं दो प्रकार के दृश्यों की कल्पना करता हूं। पहला तो यह कि रथ का स्वामी सावधान और सजग है—उसकी दृष्टि एकटक सारथी की ओर लगी हुई है कि वह रथ को कहाँ और किस तरह ले जा रहा है ? क्या सारथी भी जगा हुआ और सतर्क है या नहीं, जो कि पांचों घोड़ों को सन्तुलन से चला रहा है। वह पांचों घोड़ों की चाल की एकरूपता का भी ध्यान रखता है ताकि कुछ भी इधर उधर होने पर सारथी को चेता सके । सारथी भी अपने स्वामी की सजगता को देखकर चौकन्ना रहता है और पांचों घोड़ों की रास को बराबर सम्हाल कर रखता है। घोड़े भी समझदार होते हैं -अपने सारथी के प्रत्येक संकेत का पूरा खयाल रखते हैं। ऐसी स्थिति में रथ किस तरह चलेगा? वह समतल भूमि या मार्ग पर ही चलेगा एक-सा चलेगा जिससे भीतर बैठे हुओं को तनिक भी धक्का नहीं लगे। वह रथ तीव्र गति से भी चलेगा ताकि गंतव्य स्थान पर जल्दी से जल्दी पहुंच जाय। कभी ऐसा भी हो सकता है कि आराम से बैठे हुए रथ के स्वामी को एकाध नींद का झौंका लग जाय, तब भी सारथी एक हाक लगाकर घोड़ों को भी जरा तेज चला दे और उस हाक से अपने स्वामी को भी जगादे । रथ की गति तब निर्बाध रहती है क्योंकि रथ का स्वामी, सारथी और घोड़े सभी अपनी सावधानी बनाये रखते हैं।
दूसरा दृश्य यह हो सकता है कि रथ तो चल रहा है लेकिन वह किधर जा रहा है, कैसी चाल से चल रहा है और रथ के सामने क्या-क्या खतरे हैं इन सबसे रथ का स्वामी बेभान हो—मजे से नींद में खर्राटे भर रहा हो। जब स्वामी बेभान हो तो सारथी अपने मन की करने से कब चूकता है ? वह घोड़ों की रास को उधर ही घुमाता और उनको उधर ही चलता रहेगा जिस
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