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कल्याण की संज्ञा दी जाती है, वरन् वह है स्व-कल्याण का ही सत्प्रयास। स्व जब प्राभाविक बनता है तो वह दूसरों को भी प्रभावित बनाता है । सर्व हित की रूपरेखा इसी प्रकार के व्यक्तिगत प्रयासों के आधार पर बनती, फूलती और फलती है। इसी दृष्टि से मेरे हित में सर्वहित समाहित होता है तो सर्वहित में स्वहित समाहित रहता है।
सर्वदा और सर्वत्र सुख और समाधि
कर्म क्षय की राह पर आगे बढ़ते हुए मैं यही चिन्तन करता हूँ कि सर्वदा और सर्वत्र सुख और समाधि का वातावरण प्रसारित होता रहे। सब हर जगह और हर समय सच्चे सुख और शान्त समाधि के शोधक बन जायें। जब मैं चाहता हूँ कि सब शोधक बना जाये तो पहले मेरा स्वयं का शोधक बनना तो आवश्यक है ही । इसलिए मैंने अपने मन, अपने वचन तथा अपने कर्म की समूची तुच्छता और हीनमन्यता को दूर करने का पुरुषार्थ प्रारंभ कर दिया है। मेरी तुच्छता मिटेगी और हृदय में उदारता व्याप्त होगी तो मुझे आन्तरिक सुख मिलेगा - मेरी वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ समाधि ग्रहण करेंगी । सुख और समाधि मुझे मिलेगी तो वह मेरे भीतर ही बन्द थोड़े ही रहेगी- उस की आनन्द लहरें बाहर भी लहरायेगी और अन्य प्राणियों को भी स्पर्श-सुख देगी। मेरी साधना की गूढ़ता के साथ ये आनन्द लहरें आगे से आगे बढ़ती ही जायेगी और फैलती ही जायेंगी ।
मेरे मन का सुख, मन की समाधि में परिणत होता जायेगा। मन की समाधि यह होगी कि मैं किसी एक श्रेष्ठ उद्देश्य पर अपना ध्यान केन्द्रित करूंगा और उसी के स्व-समीक्षण में लम्बे समय तक अपने मन को लगाये रखूंगा - वह होगी मेरी चित्त समाधि और मन में कुछ भी नहीं सोचते हुए मन के योग व्यापार को परिपूर्ण नियंत्रण की अवस्था में रखूंगा जो मेरी मध्यम चित समाधि होगी और उत्कृष्ट चित्त समाधि के लिए शुक्ल ध्यान के अग्रिम दो चरणों के अनुरूप साधना का स्वरूप बनाऊंगा। इस योगाभ्यास से कई सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती है, किन्तु मैं उनके प्रलोभन में नहीं पड़ते हुए अपने आत्म-विकास की महायात्रा में निरन्तर प्रगतिशील बना रहूंगा ।
सर्वदा और सर्वत्र प्रवर्तित रहने वाली समाधि अवस्था तक पहुँचने के लिए मैं ऐहिक और पारलौकिक फल की इच्छा न रखते हुए तप करूंगा, प्राणियों का आरंभ समारंभ नहीं करूंगा तथा धर्माराधना हेतु शुद्ध संयम का पालन करूंगा । ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं में जितने त्रस और स्थावर प्राणी हैं, अपने हाथ पैर और काया को वश में करके उन्हें किसी तरह से दुःख नहीं दूंगा तथा दूसरे द्वारा बिना दी हुई वस्तु भी ग्रहण नहीं करूंगा। मैं श्रुत धर्म और चारित्र धर्म को यथार्थ रूप से कहूंगा, वीतराग देवों की आज्ञा में निःशंक बनूंगा एवं समस्त प्राणियों को अपने समान मानूंगा। मैं विवेक और समाधि में रहते हुए अपनी आत्मा को धर्म में स्थिर करूंगा तथा प्राणातिपात आदि पापों से पूर्णतया निवृत्त होऊंगा। मैं समस्त संसार को समभाव से देखूंगा-न कोई मेरा प्रिय होगा, न अप्रिय । परिषह एवं उपसर्ग आने पर अथवा अपनी पूजा एवं प्रशंसा के अवसरों पर संयम में मैं अविचल रहूंगा। असत्य के त्याग को मैं सम्पूर्ण समाधि और मोक्ष का मार्ग मानकर सत्य की आराधना करूंगा। मैं न विषय विकार के लिए जीने की इच्छा रखूंगा, न दुःख से घबराकर मरने की, बल्कि शरीर पर भी ममत्व को त्याग कर सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर विचरूंगा ।
यही नहीं, मैं सर्वविरति साधु अवस्था को दीपाते हुए पंडित मरण की अभिलाषा रखूंगा । विनय समाधि, श्रुत समाधि, तप समाधि तथा आचार समाधि का आनन्द लेकर मेरी आत्मा में इतनी
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