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मरण रूप संसार की प्राप्ति जिसके कारण हो, वह कषाय है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जो मलिन बनाता है, उसे कषाय कहते है । यह कषाय ही 'कषाय मोहनीय' है। कषाय चार होती हैं— क्रोध, मान, माया, और लोभ ।
अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन के भेद से प्रत्येक कषाय के चार-चार प्रकार हैं अतः कषाय के कुल सोलह प्रकार हैं । (ब) नोकषाय मोहनीय कषायों के उदय के साथ जिनका उदय होता है, वे नोकषाय हैं। ये क्रोधादि कषायों को उभारते हैं। नौ भेद होने से क्रोधादि के सहचर होने से ये नोकषाय हैं— हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद, तथा नपुंसक वेद । मोहनीय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त तथा उत्कृष्ट सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । इस प्रकार मोहनीय कर्म कुल ३+१६+६= २८ प्रकार का होता है।
मोहनीय कर्म का बंध छः प्रकार से किया जाता है— (१) तीव्र क्रोध करके, (२) तीव्र मान करके, (३) तीव्र माया करके, (४) तीव्र लोभ करके (५) तीव्र दर्शन मोहनीय के द्वारा तथा (६) तीव्र चारित्र 'मोहनीय के द्वारा। यहां चारित्र मोहनीय का अर्थ नोकषायों से लिया जाना चाहिये । मोहनीय कार्मण शरीर प्रयोग नामक कर्म के उदय से भी जीव मोहनीय कर्म का बंध करता है ।
मोहनीय कर्म का अनुभाव पांच प्रकार का बताया गया है - ( १ ) सम्यक्त्व मोहनीय ( २ ) मिथ्यात्व मोहनीय (३) सम्यक्त्व मिथ्यात्व मोहनीय (४) कषाय मोहनीय तथा (५) नोकषाय मोहनीय। यह अनुभाव पुद्गल तथा पुद्गल परिणाम की अपेक्षा होता है तो स्वतः भी होता है । सम, संवेग आदि परिणाम के कारणभूत एक या अनेक पुद्गलों को पाकर जीव सम्यक्त्व मोहनीय आदि को वेदता है । देश काल के अनुकूल आहार परिणाम रूप पुद्गल परिणाम से भी जीव प्रशमादि भाव का अनुभव करता है। आहार के परिणाम विशेष से भी कभी-कभी कर्म पुद्गलों में विशेषता आ जाती है, जैसे ब्राह्मी औषधि आदि आहार परिणाम से ज्ञानावरणीय का विशेष क्षयोपशम होना प्रसिद्ध है । कर्मों के उदय, क्षय और क्षयोपशम जो कहे गये हैं वे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, और भव पाकर होते हैं। बादलों के विकार आदि रूप स्वाभाविक पुद्गल परिणाम से भी वैराग्य हो जाता है । इस प्रकार सम, संवेग आदि परिणामों के कारणभूत जो भी पुद्गल आदि हैं, उनका निमित्त पाकर जीव सम्यक्त्व आदि रूप से मोहनीय कर्म को भोगता है । यह परतः अनुभाव हुआ । सम्यक्त्व मोहनीय आदि कार्मण पुद्गलों के उदय से जो प्रशम आदि भाव होते हैं, वह स्वतः अनुभाव है।
मोह का समीक्षण
मैं मनुष्य जीवन की गरिमा को पहचान गया हूं। मैं इस जीवन से ही ऊर्ध्वरेता बन सकता हूं, ऊर्ध्वारोहण कर सकता हूं वीतराग देव की पवित्र वाणी से मेरा अंतःकरण रूपान्तरित होकर सम्यक दृष्टि भाव की सर्चलाइट श्रद्धा के रूप में अभिव्यक्त हो चुकी है, उसके आलोक में हेय, ज्ञेय और उपादेय को मैं जान चुका हूं। मेरा स्वरूप जागृत हो चुका है, मेरी बहिर्भ्रात्मा सर्पकञ्चुकी की तरह अलग भाषित होती है उसको हेय मानने की अभिनव चेतना जागृत हो चुकी है। दर्शन मोह की जड़ों को मैं उखाड़ चुका हूं, मेरी प्रसन्नता क्षायिक भाव-सी लगने लगी है। अन्य संकल्प तीव्र बन चुका है। मेरी अन्तः ध्वनि हेय अवस्था को त्यागने के लिए छटपटा रही है, ज्ञपरिज्ञा को प्रत्याख्यान परिज्ञा में परिणत करता हुआ ऊर्ध्वगमन आखिरी मंजिल को लक्ष्य रूप से निर्धारित कर
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