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सिद्धान्तों की इस रूप में परीक्षा के क्रम में मैं सर्वथा ऐसे गुणमूलक सिद्धान्तों की चर्चा करना चाहता हूँ जिनका यदि सम्यक् रूप से आचरण किया जाय तो वे मनुष्य को मनुष्यतामय ही नहीं, मनुष्य को देव भी बनाने की क्षमता रखते हैं।
आचरणदर्शिका अहिंसा ___ अहिंसा का मूल स्वरूप आचरण-दर्शक है। संसार के समस्त प्राणियों के साथ रहते हुए एक सामान्य मनुष्य को अपना व्यवहार किस रूप में ढालना चाहिये कि वह सबके साथ हिलमिल कर प्रेमपूर्वक रह सके यह विधि अहिंसा का सिद्धान्त बताती है। इस सिद्धान्त के विशिष्ट महत्त्व का अंकन करते हुए ही अहिंसा को परम धर्म कहा गया है।
अहिंसा नकारात्मक याने निषेध रूप शब्द है जिसका विपर्यय है हिंसा। हिंसा की व्याख्या इस तरह की गई है कि किसी भी प्राणी के सभी या किन्हीं प्राणों को अथवा किसी भी एक प्राण को प्रमाद के योग से छेदना-भेदना, कष्ट देना अथवा किसी भी रीति से संत्रस्त बनाला हिंसा है। इतना ही नहीं, किसी भी प्राणी पर निरर्थक हकूमत चलाना या अपने वर्चस्व को थोपना भी हिंसा में ही लिया गया है। मात्र किसी का वध करना ही हिंसा नहीं है। यह तो स्थूल हिंसा है। इसके अनेक सक्ष्म रूप हैं जो दस प्राणों से सम्बन्धित हैं। किसी प्राणी की किसी भी इन्द्रिय को भी कष्ट पहचाओ या हैरान करो तो वह भी हिंसा है। कोई तेज आवाज सह नहीं सकता और किसी ने जाकर वहाँ ढोल बजाना शुरू कर दिया तो उसके श्रोतेन्द्रिय प्राण को कष्ट पहुंचाने के कारण ढोल बजाने वाला हिंसा का आचरण कर रहा है ऐसा माना जायगा। मैं मानता हूं कि किसी भी प्राणी की किसी भी इन्द्रिय, उसके मन, वचन या काया अथवा उसके श्वासोश्वास तथा आयुष्य पर आघात करने वाला भी हिंसा का ही आचरण है। इस दृष्टि से प्रत्येक प्रकार की हिंसा को सर्वत्र रोकना अहिंसा है और यह अहिंसा का निषेध रूप है। जबकि अहिंसा का विधि रूप होगा—प्राणियों के कष्ट दूर करना, उनके प्राणों की रक्षा करना, षड्काया के सभी जीवों पर दया-अनुकम्पा रखना आदि ।
यह एक प्राकृतिक तथ्य है कि हिंसा का आचरण क्रूरता, निर्दयता और राक्षसी वृत्ति को पैदा करता है जिसके कारण मनुष्य अपनी मनुष्यता खोकर पशुता की तरफ जाता है। इस के विपरीत मनुष्य अपने आचरण में जितना अधिक अहिंसा का समावेश करता है, उतने ही अधिक मानवीय गुण उसके जीवन में फूलते फलते हैं। इतना ही नहीं, यदि मन, वाणी और कर्म में पूर्णतः अहिंसा की वृत्ति अपना ली जाय तो वैसा मनुष्य स्वाभाविक रूप से देवत्व की सीढ़ियाँ चढ़ने लगेगा।
मैं आज जब अपने देश और सारे संसार की परिस्थितियों पर सरसरी नजर दौड़ाता हूं तो मुझे साफ महसूस होता है कि समूचा वातावरण हिंसा के आवरण में लिपटता जा रहा है। जहाँ देखें, वहीं हिंसा का तांडव दिखाई दे रहा है। चाहे सामूहिक समस्याएँ हों अथवा व्यक्तिगत उलझनें, सबको हिंसा से निपटाने की ही चेष्टाएँ की जाती है। परिणामस्वरूप अपराध वृत्ति बढ़ गई है, काले धंधे धड़ल्ले से चल रहे हैं और हिंसापूर्ण दंगों, आन्दोलनों या युद्धों की आशंकाएं मुंह बाए खड़ी होती जा रही हैं। मेरा मानना है कि वर्तमान वातावरण में अहिंसामय आचरण की अधिक आवश्यकता है।
मैं इसे विचारणीय मानता हूं कि अहिंसा के सिद्धान्त के पीछे कितने व्यापक लक्ष्य अन्तर्निहित उन्हें समझने की आवश्यकता है। इस संसार में छोटे हो या बड़े, सूक्ष्म हों या स्थूल सभी
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