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अपना आत्म-विकास सिद्ध भी किया है और वे अपने चरण चिह्न छोड़ गये हैं ऐसे चरण चिह्न जो ज्ञान-विज्ञान और दृष्टि की उनकी परिपूर्णता सिद्ध हो जाने के बाद अंकित हुए हैं। वे चरण चिह्न ही हमें उनका वह अपार ज्ञान कोष और उनकी असीम दृष्टि बताते हैं जिन्हें हम अपने ज्ञान व दृष्टि के वर्तमान विकास के स्तर से ग्रहण कर सकते हैं। जितना नवनीत हम वहाँ से ले लें, उतना दूध हमें कम जमाना पड़ेगा-बिलौना कम करना पड़ेगा। सच तो यह है कि हमें दूध से मक्खन निकालने का श्रम ही न करना पड़े, यदि हम आत्मविकास के सम्पूर्ण विज्ञान का उन चरण चिह्नों से सम्यक् अनुसरण कर लें।
___ लम्बे रास्ते को छोटा करने का यही श्रेष्ठ उपाय है, क्योंकि हम भी दूध जमायेंगे और खूब मथनी घुमायेंगे तो वही मक्खन निकलेगा जो हमें वीतराग देवों की आज्ञा के रूप में सीधा ही मिल रहा है। वह सिद्धान्त-सार हमारे सामने हैं, हम स्वतंत्र हैं कि उसकी विशेषताओं को हृदयंगम करें
और उनको अपने आचरण में उतारें। लेकिन क्या हम उस सिद्धान्त-सार को यों ही अपने आचरण में उतार पायेंगे?
यहीं आकर आस्था का प्रश्न खड़ा होता है। आस्था का प्रश्न सामने आते ही तर्क तन कर पूछता है -क्या आस्था आंख मींच कर की जाय? आस्था आंख मींचकर करने का प्रश्न ही नहीं है वह तो अन्धश्रद्धा कहलायेगी और अन्धश्रद्धा से कभी किसी का भला नहीं हो सकता है। आस्था आंखें खोलकर ही की जायगी, बल्कि हमारे सम्यक् ज्ञान और विवेक का जो भी स्तर हो, उस पर आस्था के विषय को खरा मानकर ही आस्था से ओतप्रोत होंगे।
तर्क एक प्रश्न और प्रस्तुत करता है और वह यह कि जब वीतराग देवों की आज्ञापालन करने की बात कही जाती है और उसके प्रति पूरी आस्था रखने की भी बात कही जाती है तो क्या यह चिन्तक आत्मा की विचार-स्वतंत्रता का हनन नहीं है? और इसी प्रश्न का उत्तर खोजने में हमें आस्था और तर्क के अन्तर को भलीभांति समझ लेना चाहिए।
मैं बिना लागलपेट सोचता हूँ कि मेरा मन कब किसी की बात को मानना चाहता है ? यह सही है कि मैं किसी की बिना हाथ-पैर की बात कभी भी नहीं मानना चाहता हूँ। बात के हाथ-पैर होने चाहिए। क्या मतलब है इसका ? समझिये कि किसी ने आकर मुझे एक बात कही तो पहले मैं उस बात की संभावना पर सोचता हूं, फिर कहने वाले व्यक्ति की विश्वसनीयता पर । यदि दोनों बातें अनुकूल हैं तो मैं कहने वाले से तर्क करता हूँ-सीधा भी और उल्टा भी ताकि कहने वाले का जितना असत्य हो बाहर फूट जाय । इतना करने के बाद जब मेरा मन आश्वस्त हो जाता है, तब ही कहने वाले की बात को मैं मानता हूँ। मानने के बाद भी उस बात की सत्यता की अपने आचरण के माध्यम से बराबर जांच करता रहता हूँ।
इस सामान्य प्रक्रिया के माध्यम से मैं कहना यह चाहता हूँ कि मानव मात्र का स्वभाव अपने ज्ञान और विवेक के अनुसार किसी भी बात को मानने का ही होता है। इसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य किसी भी तथ्य की पुष्टि के लिए पहला आश्रय तर्क का ही लेता है। तर्क का अर्थ होता है कि जैसी भी और जितनी भी बुद्धि उसके पास है, उसकी सहायता से सामने आई हुई बात की जांच-पड़ताल करना। तार्किकता मनुष्य का स्वभाव होता है और हठवाद से दूर एक सीमा तक यह स्वभाव सही काम करता है। किसी भी बात को आंख मींच कर मान लेने को बुद्धिमानी नहीं कहा जाता है। बुद्धि का माप तर्क से ही निकलता है।
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