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मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनों दो प्रकार की नींव की ईंटे हैं। मिथ्यात्व संसार के नश्वर सुखाभासों का महल खड़ा करता है तो सम्यक्त्व की नींव पर मोक्ष का महल खड़ा होता है जो एक भव्य एवं विकासशील आत्मा का चरम लक्ष्य माना गया है। सम्यक्त्व का अर्थ होगा सत्यपना याने कि सत्य पर आत्म विकास की महायात्रा को प्रतिष्ठित करना। सत्य में मन, वाणी और कर्म का समावेश होना चाहिये। सम्यक्त्व इन तीनों प्रकारों में जब फैल जाता है तभी आत्म विकास की बुनियाद बनती है। यह बुनियाद है सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म पर पूर्ण श्रद्धा जिसके कारण सम्यक्त्व का उद्भव होता है तथा मन, वाणी एवं कर्म की समस्त वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों में सम्यक्त्वरूप शुभता का प्रसार तथा विस्तार।
मैं इसे एक श्रेष्ठ विशिष्टता मानता हूं कि इस समयत्त्व में कहीं भी साम्प्रदायिकता अथवा व्यक्ति-पूजा को कोई स्थान नहीं है। इस मान्यता में न तो किसी देव विशेष के प्रति हठाग्रह है एवं न किसी गुरु विशेष या धर्म विशेष के प्रति पक्षपातपूर्ण भाव । सत्य की कसौटी पर जो देव सुदेव सिद्ध होते हैं अथवा कि जो गुरु या धर्म 'सु' के विशेषण से विभूषित होते हैं, वे ही एक सम्यक्त्वी के लिये आराध्य हैं। इसी कसौटी पर कसकर देवस्थान पर वीतराग देव को मान्यता मिली है, क्योंकि वीतराग देवों की महान् आत्माओं ने सांसारिकता के बीज रूप राग एवं द्वेष को व्यतीत करके परम विशुद्ध स्वरूप ग्रहण कर लिया। चाहे वे वीतराग महावीर हुए हों या अन्य कोई देव सभी सुदेव हैं तथा उनका दिव्य स्वरूप ही श्रद्धा का विषय है। उन्होंने जो कुछ उपदेश आत्म विकास के सम्बन्ध में अपने स्वानुभव से दिया है, वही धर्म रूप में प्रतिष्ठित माना जाना चाहिये। इस प्रतिष्ठा से ही वह सुधर्म कहलाता है। ऐसे वीतराग देवों की आज्ञा में जो चलते हैं तथा ऐसे सुधर्म का जो प्रचार करते हैं, वे ही सुगुरु रूप में सम्मान पाते हैं। यहाँ कोई हठाग्रह, भेदभाव अथवा पक्षपात नहीं है कि किसी देव, गुरु या धर्म विशेष को ही मानें। यह तो सम्यक्त्वधारी की सद्बुद्धि एवं परीक्षा-बुद्धि का विषय है कि वह सत्य को समझे तथा देव, गुरु एवं धर्म के 'सु' स्वरूप को अपनी श्रद्धा का केन्द्र बनावे।
सम्यक्त्व की इसे ही मैं बुनियाद समझता हूँ जिसके आधार पर सम्यक् ज्ञान, सम्यक् श्रद्धा एवं सम्यक् आचरण से परिपूर्ण जीवन का निर्माण किया जा सकता है। यही वह ईंट है जिस पर मोक्ष का महल खड़ा किया जा सकता है। नींव की ईंट अगर मजबूती से जम गई है तो आगे के निर्माण के प्रति निश्चित बना जा सकता है। एक सम्यक्त्वधारी सदा सावधान रहता है कि वह अपने सत्पथ से भटके नहीं। यदि कभी किसी कारण से कुछ भटकाव आ भी जाता है तो वह अपने आत्म नियंत्रण के बल पर उस भटकाव को समझ जाता है और जल्दी से जल्दी उसे दूर कर देता है। फिर वैसा भटकाव न आ सके इस हेतु से वह निरन्तर अपनी आत्मालोचना करता रहता है। इस प्रकार आत्म चिन्तन एवं आत्म दमन के उपायों से वह अपने सम्यक्त्व के विस्तार एवं विकास के लिये अथक पुरुषार्थ करता रहता है। मैं मानता हूं कि आत्मा को एक बार सम्यक्त्व का आलोक प्राप्त हो जाय—यह उसकी एक बहुत बड़ी उपलब्धि होती है।
आत्म-नियंत्रण का धरातल __मैंने एक बार जब सम्यक्त्व का आलोक पा लिया तो उससे मिथ्यात्व का अंधकार मिटने लगा और मुझे एक और जीवादि नवतत्त्वों का ज्ञान मिल गया तो दूसरी ओर सुदेव सुगुरु तथा ११६