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प्रारम्भिकी
शास्त्र चूड़ामणि आचारांग सूत्र में प्रभु महावीर ने फरमाया है
जे
से
अण्णणारामे /
अण्णणदंसी, अण्णणारामे,
से
अण्णणर्दसी /
- आ. सूं. १२६,
अर्थात् जो अनन्यदर्शी है, वह अनन्यारामी है तथा जो अनन्यारामी है, वह अनन्यदर्शी है। प्रश्न उठता है कि साधना की किस प्रक्रिया को सफलता पूर्वक सम्पन्न कर लेने के पश्चात् अनन्यदर्शिता की अवस्था समुत्पन्न होती है तथा उससे अनन्य आनन्द की अनुभूति हो सकती है ? अनन्यदर्शिता एवं अनन्य आनन्द की अनुभूति में क्या पारस्परिक सम्बन्ध एवं सामंजस्य है ?
आनन्द का अनुभव सदा काल प्रिय अनुभव है। ऐसे सुखकारी अनुभव को सभी जीवों ने सदा चाहा है, सदा चाहते हैं और सदा चाहते रहेंगे। सभी जीवात्माओं की यह शाश्वत अभिलाषा होती है किन्तु उन्नतिकामी आत्माएँ ही सत्य आनन्दानुभूति के पथ पर अग्रगामी बन सकती है ।
आनन्द की अनुभूति का विश्लेषण विभिन्न चरणों में विभिन्न प्रकार से किया जाता है तथा उन्हीं विविध विश्लेषणों के आधार पर सत्यानुभूति की शोध की जा सकती है। असत्य, भ्रम एवं द्विधा के विकट वनों को धैर्यपूर्वक पार कर लेने पर ही आनन्द की सत्य अनुभूति साधक के अन्तः करण में अखूट सुख का दिव्य आलोक प्रसारित करती है।
जब जीव संसार के इस रंगमंच पर जन्म लेता है तो वह कोरा 'निज' नहीं होता, 'अन्य' के साथ जुड़ा होता है । फिर यह संसार तो जड़-चेतन का समन्वित क्रीडांगण ही है। जड़ दृश्यमान होता है और चेतन अदृश्य । स्वयं चेतन के लिये भी अपना 'निज' अदृश्य रहता है जब तक कि वह उसे अनुभवगम्य नहीं बनाता, अभिप्राय यह है कि नवागत जीवात्मा का प्रथम परिचय सर्व ओर व्याप्त एवं विस्तृत जड़ लीला से ही होता है । बचपन से यौवन तक और आगे भी भौतिकता के ऐसे उत्तेजक दृश्य जीवात्मा अपनी इन्द्रियों के माद्यम से देखती, सुनती और अनुभव करती है कि ठोस तथ्यों के रूप में वह उन्हीं को सबके बीच आसानी से जानती है । यही कारण है कि सामान्य रूप जीवात्माएँ निज के निजत्व को न जानती हुई अन्य के प्रखर अस्तित्व को पहले जानती है। बालक का लालन-पालन जिन पदार्थों से होता है, वे अधिकांशतः भौतिक या कि अन्य होते हैं तथा आन्तरिक मनोभावनाओं का व्यक्तिकरण भी बालक पदार्थ प्राप्ति के रूप में ही देखता है । अतः वह प्रारंभ से पदार्थों की महत्ता को ही जानता है अर्थात् अन्य के साथ ही अपना प्रमुख सम्बन्ध मानता है । फिर यौवन काल में तो खास तौर से भौतिक सुखों का आकर्षण उसे ललचाता है और वह उन्हीं को पाने, बनाये रखने एवं भोगने की रागद्वेषमय क्रियाओं में बुरी तरह से उलझ जाता है ।
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