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करना, (१०) स्वाध्याय –शास्त्रों की वाचना पृच्छना आदि करना, (११) ध्यान-मन को एकाग्र करके शुभ विचारों में लगाना एवं (१२) व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) शरीर के योग व्यापार का त्याग करना।
जीव जब कषाय आदि के वशीभूत होकर कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है और आत्मा के प्रदेश तथा कर्मों के पुद्गल एक साथ दूध पानी की तरह मिल जाते है तथा लौह पिंड व अग्नि के समान एकमेक हो जाते है तो इस प्रक्रिया को बंध तत्त्व कहते हैं। इस प्रक्रिया का एक दृष्टान्त दिया गया है कि जीव आठ कर्मों से बंधा हुआ होता है और जीव तथा कर्म एकमेक हो जाते हैं व दूध-पानी की तरह लोलीभूत हो जाते हैं। तब हंस पक्षी अपनी खट्टी चोंच से दूध और पानी को एकदम अलग-अलग कर देता है, उसी प्रकार जीव रूपी हंस सम्यक् ज्ञान रूपी चोंच से जीव और कर्म के प्रदेशों को पूर्णतया पृथक-पृथक कर देता है। बंध तत्त्व के चार भेद माने गये हैं—(१) प्रकृति बंध-जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में भिन्न-भिन्न स्वभावों वा शक्तियों का उत्पन्न होना, (२) स्थिति बंध—जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में अपने स्वभाव का त्याग नहीं करते हुए जीव के साथ बंधे रहने की काल मर्यादा को स्थिति बंध कहते हैं, (३) अनुभाग बंध –जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-पुद्गलों में तर-तम भाव याने कि फल देने की न्यूनाधिक शक्ति का होना। इसे रसबंध भी कहते हैं, (४) प्रदेश बंध –जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्म-स्कंधों का सम्बन्धित होना। इन चार प्रकार के बंध का स्वरूप लड्डू के दृष्टान्त से स्पष्ट किया गया है कि कोई लड्डू बहुत प्रकार के द्रव्यों के संयोग से बनाया गया, जो वात, पित्त या कफ को नष्ट करता हो, उसे प्रकृति बंध माने । वही लड्डू पक्ष, मास या दो मास तक उसी स्वरूप में ताजा बना रहे यह स्थिति बंध हुआ। वही लड्डू तीखे, कड़वे, कसैले, खट्टे और मीठे रस युक्त हो, उसे अनुभाग बंध या रस बंध कहिये। वही लड्डू थोड़ी मात्रा का बंधा हुआ छोटा होता है तो अधिक मात्रा का बंधा हुआ बड़ा होता है तो वह प्रदेश बंध है। प्रकृति बंध और प्रदेश बंध योग से होता है तो स्थिति बंध और अनुभाग बंध कषाय से होता है।
मोक्ष तत्त्व है—आत्मा का कर्म रूपी बंधन से पूर्णतया मुक्त हो जाना तथा सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों से सभी कर्म पुद्गलों का क्षय हो जाना। आत्मा अमूर्त होने से इन्द्रियों की शक्तियों द्वारा नहीं जानी जा सकती है। आत्मा में पैदा होने वाले अज्ञान, मिथ्यात्व आदि के दोषों से ही कर्मों का बंध होता है तथा उसी कारण उसका संसार परिभ्रमण होता है। अतः कर्म बंध का सम्पूर्णतः समाप्त हो जाना ही आत्मा का मोक्ष है। यह मोक्ष चार साधनों से प्राप्त हो सकता है—(१) सम्यक् ज्ञान-सत्य जानकारी, (२) सम्यक् दर्शन–सत्य श्रद्धा, (३) सम्यक् चरित्र-सत्य आचरण एवं (४) सम्यक् तप-सत्य तपस्या।
___ यह है एक दृष्टि में संसार से लेकर मोक्ष तक की प्रक्रिया का विहंगावलोकन । मैंने इस विवरण से सामान्य ज्ञान प्राप्त किया है कि संसार में जीव-अजीव संयोग के क्या-क्या परिणाम प्रकट होते हैं और उन परिणामों को ध्यान में लेते हुए किस प्रकार संसार-परिभ्रमण के कारणों को मन्द एवं समाप्त कर सकते हैं ?
(सांसारिकता घटाई जा सकती है आत्म संयम से, तो मोक्ष की दिशा में प्रयाण किया जा सकता है तपाराधन से ) आइये, अब इन नौ तत्त्वों के पारस्परिक सम्बन्धों व प्रक्रियाओं को आत्म विकास की महायात्रा के संदर्भ में समझें।
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