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आत्म-विकास का जोश जगाया जा सकता । यदि मनुष्य एक बार वृद्धावस्था, मृत्यु और धन . वैभव की अस्थिरता को दिल से समझ जाय तो उसकी संवेदनशीलता उभर सकती है और वह अपनी मूर्च्छा को तोड़ सकता है ।
(मैं संकल्प लेता हूं कि मैं बाह्य जगत् के अपने सम्पर्क को कभी प्राथमिकता नहीं दूंगा । बल्कि अन्तरात्मा की आवाज को ही प्रमुखता दूंगा। इस कारण जन्म लेती हुई अपनी आशाओं और इच्छाओं का वहीं निरोध कर दूंगा ताकि उन की पूर्ति सम्बन्धी विषय कषायपूर्ण प्रमाद से बच जाऊं। मैं इन्द्रियों के विषयों में आसक्त बनूंगा तो बहिर्मुखी हो जाऊंगा और विभाव- सद्भाव में रत रहकर कर्मबंधनों को काट नहीं सकूंगा अतः अन्तर्मुखी बनना मेरा लक्ष्य होगा जिसके लिये मुझे अनासक्ति भाव का अभ्यास करना होगा। मैं मानता हूँ कि मेरी संयम साधना वहीं से प्रारंभ होगी । कषायों का राजा मोह होता है अतः मोह को नष्ट करूंगा तो कषायों को भी नष्ट कर दूंगा । आप्त पुरुषों ने कषायों से मुक्ति को ही वस्तुतः मुक्ति कहा है।
मैं इस सत्य को सदा मानता हूँ कि इस मानव समाज में न कोई नीच है, न कोई उच्च – इस कारण सबके साथ समतापूर्ण व्यवहार ही किया जाना चाहिये। समता से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। समता धर्म का मूलाधार यह है कि जगत् में सब प्राणियों के लिए पीड़ा अशान्तिकारक और दुःखयुक्तहोती है एवं सभी प्राणियों के लिये सुख अनुकूल होते हैं व दुःख प्रतिकूल होते हैं । वध आदि की हिंसक प्रवृत्तियाँ अप्रिय होती हैं, जीवित रह पाने की अवस्थाएँ प्रिय लगती हैं । सब प्राणियों के लिये जीवन प्यारा होता है अतः सबके जीवन की रक्षा की जानी चाहिये। जीवन रक्षा के बाद जीवन-साम्यता उससे ऊपर की सीढ़ी है ।
मैं अनुभव करता हूँ कि अहिंसा और समता की साधना ही सत्य की साधना है। आवश्यक यह है कि हम सत्य का निर्णय कर सकें, सत्य को धारण कर सकें तथा सत्य की आज्ञा में स्थिर रह सकें । सत्य की जो आज्ञा है, वही समतादर्शी वीतराग देव की आज्ञा होती है, जिसका पालन मैं अपना प्रथम कर्त्तव्य मानता हूँ। इस पालन में भी मैं तत्परता को अनिवार्यता मानता हूँ क्योंकि कुछ लोग उनकी आज्ञा में भी आलसी होते हैं तो कुछ लोग उनकी अनाज्ञा में तत्पर होते हैं जबकि ये दोनों ही दशाएँ नहीं रहनी चाहिये। मैं इस आज्ञापालन को अपनी स्वतंत्रता का हनन नहीं मानता क्योंकि उनकी आज्ञाओं तक अपनी बुद्धि तथा अपने तर्क से नहीं पहुँचा जा सकता है। आध्यात्मिक रहस्यों का वीतराग देवों का आत्मानुभव – उनकी समदर्शिता की आज्ञा का पालन नतमस्तक होकर करना चाहिये । संसार को जानने के लिए संशय ( जिज्ञासा) अनिवार्य है किन्तु समाधि के लिए श्रद्धा अनिवार्य होती है ।
मैं संकल्प लेता हूँ कि मैं स्वयं समभाव में स्थित होने का प्रयास करूंगा, समदृष्टि में रहूँगा तथा अपने आचरण का समता के धरातल पर नव सृजन करूंगा । इस दृष्टि से सबसे पहले मैं अपने ही जीवन को सम्यक् निर्णायक बनाऊंगा ताकि समाज के व्यापक वातावरण में सम्यक् निर्णायक शक्ति का सामान्य विकास संभव बनाया जा सके। समाज में समतामय परिस्थितियाँ रचना ही मेरा पवित्र कर्त्तव्य होगा ही इस परिप्रेक्ष्य में पदार्थ-संग्रह को समाज में आर्थिक विषमता पैदा करने वाला समझंगा तथा मूर्च्छा रूप परिग्रह से सबको दूर रहने की प्रेरणा के लिए अथक रूप से कार्य करूंगा ।
मेरी हार्दिक अभिलाषा रहेगी कि स्व-स्वरूप, स्व-अस्तित्व एवं स्व-स्वातंत्र्य पर मेरी अमिट आस्था हो और इसी त्रिपुटी को मैं सभी प्राणियों के साथ सम्बद्ध मानूंगा। मैं अपने आत्म स्वातंत्र्य
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