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मोहजन्य होती है । उभय प्रकार की निद्राओं का सेवन करना निद्रा प्रमाद है । द्रव्य निद्रा प्रमाद की अपेक्षा भाव निद्रा प्रमाद अत्यधिक भयंकर एवं आत्मा को अधोगामी बनाने वाला होता है। अतः भाव निद्रा प्रमाद से व्यक्ति जितना बचता है उतना ही उसका आत्म-विकास होता है ।
विकथा प्रमाद
राग-द्वेषवश होकर जो वचन कहे जाते हैं, उन्हें विकथा कहते हैं याने कि विकृत कथन । ये कथन कई प्रकार के होते हैं जिनका निरोध, वाणी पर संयम रखकर किया जा सकता है।
मेरा विश्वास बन गया है कि यदि मैं सर्वप्रकारेण प्रमादाचरण को समाप्त करने लगूं तो अवश्य ही विषय कषायों की मन्दता के साथ अज्ञान, आसक्ति एवं ममत्व के परिणाम भी क्षीण होने लगेंगे। चाहिये भीतर का जागरण, चेतना का समीकरण एवं मन का केन्द्रीकरण ।
आध्यात्मिक उत्प्रेरणाएँ
अन्तःकरण चेतना एवं मन की साधना में जब समरसता जमती है तो अपनी विदशा के प्रति ग्लानि भी उत्पन्न होती है और एक नया उत्साह भी जागता है कि चरण सन्मार्ग पर गमन करें । ऐसी मानसिकता में आध्यात्मिक उत्प्रेरणाएँ उस उत्साह को सम्पुष्ट बनाती हैं — ऐसी मेरी सुदृढ़ धारणा है। ये आध्यात्मिक उत्प्रेरणाएँ उन वीतराग देवों के परम ज्ञान से उद्भूत हुई हैं जिन्होंने अपने आत्मस्वरूप की श्रेष्ठ समुज्ज्वलता एवं परमोच्चता प्राप्त की ।
इस पहले सूत्र से सम्बन्धित ऐसी ही कुछ आध्यात्मिक उत्प्रेरणाएँ मैं यहाँ देना चाहता हूँ जो मेरी आत्म विकास की महायात्रा का मार्गदर्शन करती हैं और मेरी मान्यता है कि वे सम्पूर्ण जगत् के समस्त प्राणियों के आत्म विकास को भी अनुप्रेरित करती हैं—
‘हिंसा कार्यों के परिणामों को समझ कर बुद्धिमान मनुष्य स्वयं छः काय के जीव अर्थात् किसी भी प्राणी समूह की कभी भी हिंसा नहीं करे, दूसरों के द्वारा कभी भी हिंसा नहीं करवाए तथा हिंसा करते हुए दूसरों का कभी अनुमोदन भी नहीं करे। जिसके द्वारा छः काया के जीवों के हिंसा कार्य समझे हुए होते हैं, वह ज्ञानी होता है जो हिंसा कार्य को दृष्टाभाव जानता है।
'छः काया के प्राणी समूह को वीतराग देव की आज्ञा से अच्छी तरह जानकर उसको निर्भय बना दे - अभयदान दे।'
'जो अध्यात्म रूप समता को जानता है, वह बाह्य जगत् में चल रही सांसारिक विषमताओं को समझता है, जो इन बाह्य विषमताओं को समझता है, वह अध्यात्म को जानता है। जीवन-सार को खोजने वाले मनुष्य को यह श्रेष्ठ सन्तुलन वाली आध्यात्मिक तुला सदैव अपने सामने रखनी चाहिये ।
'इस जीवन में जो व्यक्ति प्रमादयुक्त होते हैं, वे मनुष्य जीवन एवं इसकी दुर्लभ प्राप्तियों के व्यतीत होते जाने को नहीं समझ पाते हैं। इस कारण प्रमादी व्यक्ति प्राणियों को मारने वाले, छेदने वाले, भेदने वाले, उनकी हानि करने वाले, उनका अपहरण करने वाले, उन पर उपद्रव करने वाले तथा उनको हैरान करने वाले होते हैं । कभी नहीं किया गया है - ऐसा हम करेंगे, यह विचारते हुए प्रमादी व्यक्ति हिंसा पर उतारू हो जाते हैं । अतः प्रत्येक जीव के सुख-दुःख को समझ कर और अपनी आयु को ही सचमुच न बीती हुई देखकर तू उपयुक्त अवसर जान । जब तक तेरी पांचों
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