SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३ " क्यों जी ! आप अपने ही मुख से अपने को नास्तिक बतला रहे हैं ?" જવાબમાં મહારાજશ્રીએ કહ્યું– "बेशक, मैं नास्तिकता का उपदेश करता हूँ, इसलिए मैं अपने को नास्तिक बतलाए जाने पर खिन्न नहीं होता ।" पंडितामे पूछयु-" कैसे ?” મહારાજશ્રીએ કહ્યું " देखिए ! मैं लोगों से कहता है कि हिंसा मत करो ! झूठ मत बोलो ! चोरी मत करो! बदमाशी मत करो ! क्रोध, लोभ, अभिमान को हटाओ ! इस तरह मैं हिंसा आदि के नास्तित्व में आत्मा का श्रेय मान कर औरों को भी इसी नास्तित्व के मार्ग पर लाने का प्रयत्न करता हूँ।" पडित मोत्या-" इन बातों को तो हम भी मानते हैं" । त्यारे भडारा श्री ४धु "तो आप भी हमारी ही पंक्ति में आ गए!" આ ઉપર પંડિતે ખુશ થયા અને વિદાય લીધી. આજે અમે લલકારીને જૈન સમાજને કહી
SR No.023008
Book TitleVvichar Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayvijay
PublisherJain Yuvak Sangh
Publication Year1931
Total Pages110
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy