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वृहदारण्यककार ने दश ग्राम्य धान्यों का नाम निर्देश करके लिखा है कि इनके पिष्ट को दही मधु घृत में मिलाकर हवन करना चाहिए। इससे प्रमाणित होता है कि उपनिषद्कारों की दृष्टि में धान्य ही यज्ञ में हवनीय पदार्थ होते थे, न कि पशु ।
श्वेताश्वतरोपनिषद् में सृष्टि के सर्व पदार्थों को पुरुष-रूप माना है, और उसकी वृद्धि का कारण अन्न बताया है।
नारायणोपनिषद् में आत्मा को अन्नमय माना है, और उसकी विशुद्धि के लिये प्रार्थना की गयी है, इतना ही नहीं बल्कि अन्न को ही परम्परा से आत्मज्ञान का कारण तक बताया है।
कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद् में सोम को पञ्चमुख वाला प्रजापति कहा है, और उनके सभी मुखों से अपने पापको अन्नाद बनाने की प्रार्थना की गयी है । पक्षियों को खाने वाले उनके श्येन मुख से भी अपने को अन्नाद बनाने की प्रार्थना करने से सिद्ध होता है कि उस समय के मनुष्य केवल अन्न भक्षी थे, मांस भक्षण को वे मनुष्य का भोजन नहीं मानते थे।
कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद् में बालाकि को अजातशत्रु ने चन्द्र मण्डल में पुरुष की उपासना न कर उस में अन्न की उपासना करने की सूचना की है। उन्होंने कहा है सोम राजा यह अन्न का आत्मा है, इसलिये मैं इनकी उपासना करता हूँ। जो इसकी उपासना करता है अन्न मय आत्मा बन जाता है।
सुबालोपनिषद् में कैसा भी पक्व स्लिम पर्युषित पवित्र । अप्रार्थित अन्न मिलने पर भोजन करने का सूचन किया गया है। .