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की सूचन करता था । चिरकाल के बाद उस रहस्य को जानने वाले ऋषि तथा प्राचीन निघण्टु अदृश्य हो गये, और यवास शब्द का वास्तविक अर्थ भी विस्मृत होकर, यवास केवल यव रह गया । इसी प्रकार अपना मौलिक अर्थ खोने वाले सैकड़ों शब्द हमारे दृष्टिपथ में आते हैं कि जिनका मौलिक अर्थ बदल चुका है, और कल्पित अर्थ में आजकल वे प्रयुक्त होते हैं । इस विषय में कुछ उदाहरण हम नीचे उद्धत करते हैं ।
( १ ) - " कपोत" यह शब्द प्रतिपूर्व काल में पक्षिमात्र का बोचक था, “के—आकाशे पोतः प्रवहणम् कपोतः” इस व्युत्पत्ति से पक्षिमात्र कपोत कहलाता था, परन्तु आज कपोत शब्द से केवल कबूतर पक्षी का ही बोध होता है ।
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( २ ):- "मृग" यह शब्द हजारों वर्ष पहले का वाचक था। जिनमें हिरण, भेड़िया, बांघ,
बनचर पशुओं
एक •
भैंसा, हार्थी,
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१ - " कपोतः पक्षिमात्रेऽपि" इत्यादि प्रभिधान कोशों के प्रतीकों से प्राज भी कपोत शब्द का पक्षिमात्र वाच्यार्थ होने का संकेत रह गया है, फिर भी व्यवहार में इस अर्थ में प्रयोग नहीं होता ।
"वराह महिषन्यङ्क रुरु रोहित वारणाः ॥ ३० ॥ समरश्चमरेः खङ्गो महिषः 11 38 11
२–कल्पद्रु शब्द कोश के उपर्युक्त उद्धरण में प्राये हुए बराह महिष यादि सभी नाम वन्य पशुओं के हैं, जिन्हें कोशकार ने महा मृग कहा है । श्रृंगाल भी मृग जाति का ही क्रव्याद प्रारणी है, परन्तु वह विशेष चतुर होने के कारण कोशकारों ने उसे मृगधूर्तक कहा है । पर्णमृग, शाखामृग ( बन्दर ) प्रादि अनेक जानवर मृग जाति में सम्मिलित हैं ।