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ईशा की तीसरी शताब्दी के लगभग हजारों जैन एक सांधातिक बिमारी के कारण तक्ष शिला को छोड़कर आप की तरफ आगये थे। जो शेष रहे थे, वे भी विदेशियों के आक्रमण की
गाही पाकर वहां से भारत के भीतर के प्रदेशों में आ पहुंचे थे और तज्ञ शिला जैम वस्ती से शून्य हो गया था।
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जिनके आक्रमण की शङ्का से जैनों ने तक्षशिला का प्रदेश छोड़ा था, वे ससेनियन लोग थे। तक्ष शिला में जो बची खुची वस्ती थी वह उनके आक्रमण के समय में इधर उधर भाग गई, और तक्षशिला सदा के लिये बीरान हो गई ।
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-- जैनों तथा ब्राह्मणों की संस्कृति के हट जाने से बौद्धों के लिये इ क्षेत्र निष्कण्टक हो गया। वहां के तीर्थ, मठ, मन्दिर आदि सर्व स्मारक बौद्धों की सम्पत्ति हो गई ।
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महा निशीथ सूत्र के लेखानुसार धर्मचक्र तीर्थ जो उस समय चन्द्रप्रभ तीर्थ कहलाता था, वह बोधिसत्व चन्द्रप्रभ्र का स्मारक बन गया । ऐसा "हुएन संग" के भारत भ्रमण वृतान्त से ज्ञात होता है। वह लिखवा है।
"हुएम संग तीर्थ और चमत्कारक स्थानों को देखता हुआ तक्षशिला देश में पहुंचा। इस नगर के उत्तर में थोड़ी दूर पर एक और स्तूप है जिसे महाराज अशोक ने बनवाया था । इस स्तूप की धरती (पृथ्वी) से सदा प्रकाश निकलता रहता है । जब तथागत बुद्धत्व को प्राप्त कर रहे थे तब वह एक देश के राजा 'थे और उनका नान चन्द्रम था। ( हुएन संग पृ०३+