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( ४१२ ) संन्यस्तोऽहमितिब्र यात्, सवनेषु त्रिषु क्रमात् ॥ त्रीन् वारांस्तु त्रिलोकात्मा, शुभाशुभविशुद्धये । यत्किश्चिद् बन्धकं कर्म, कृतमज्ञानतो मया ॥ प्रमादालस्य दोषाद् यत्तत्सर्व संत्यजाम्यहम् ।। एवं संचिन्त्य भूतेभ्यो, दद्यादभयदक्षिणाम् ।। पद्भ्यां कराभ्यां विहर-नाहं वाकाय-मानसः। 'करिष्ये प्राणिनां हिंसां, प्राणिनः सन्तु निर्भयाः ॥
अर्थः-आपत्कालीन संन्यास शेष रहा है जो कहते हैं बुढ़ापे से घिर जाने पर, शत्रुओं द्वारा पीडित होने पर, आतुर संन्यास लेना चाहिये, आतुरों के संन्यास में न विधि है न क्रिया, प्रतिज्ञा पाठ मात्र बोल कर आतुर संन्यास कराया जाता है । क्रम से तीन सवन हो जाने पर आतुर "मैं संन्यासी' हो गया इस प्रकार शुभाशुभ के विशुद्धि के लिए तीन बार बोले । जो कुछ मैने अज्ञानवश शुभाशुभ बन्धक कर्म प्रमाद और आलस्य के दोष से किया है उसे छोडता हूँ। ऐसा चिन्तन करके प्राणियों को अभय दक्षिणा दे, चलता हुआ पैरों से, हाथों से, वचन से, शरीर से और मन से प्राणियों की हिंसा नहीं करूंगा, प्राणी निर्भय हों।
... उपसंहार वैदिक परिव्राजक के सम्बन्ध में लिखने योग्य बातें बहुत हैं, तथापि इस विषय में अब अधिक लिखना समयोचित नहीं ।