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________________ . ( ४०१ ) प्राविकं पट्टिकां मांसं, तूलिका मञ्चकं मधु । शुक्लवस्त्रं च यानं च, ताम्बूलं स्त्रियमेव च ॥ प्रतिगृह्य कुलं हन्यात्, प्रतिगृहणाति यस्य च । पुष्पं शाखां पल्लवं वा, फल मूल तृणादिकम् ॥ भुक्त्वा च यस्तु सन्यासी, नरके पतति ध्रुवम् । अर्थः-दासी, दास घर, वाहन, गाय, भूमि, धान्यधन (द्रव्य) रस और गांव इन पदार्थों में से किसी का भी दान स्वीकार कर यति तीन सौ कुलों का नाश करता है। .. ऊनीवस्त्र, पट्टिका, मांस, गद्दी, मंच, शहद, श्वेतवस्त्र, वाहन, ताम्बूल. और स्त्री इनको ग्रहण करके अपने तथा दाता के कुल का नाश करता है। फूल वृक्षशाखा, पत्र, फल, मूल और तृण प्रादि वस्तुओं को खाकर संन्यासी नरकगामी बनता है। अत्रि कहते हैं संन्यासी का स्थिति नियम भिक्षार्थ प्रविशेद् ग्राम, वासार्थ वा दिनत्रयम् । एकरात्र वसेद् ग्रामे, पट्टने तु दिनत्रयम् ।। पुरे दिनद्वयं भिनु. नगरे पश्चशत्रकम् । वर्षास्वेकत्र तिष्ठेत, स्थाने पुण्यनलावृते ॥ आत्मवत् सर्वभूतानि, पश्यन् भितुश्चरेन्महीम् । अन्धवत्कुब्जवच्चापि, बधिरोन्मत्तमुक्रवत् ।।
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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