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( ३६५ ) कण (सेका हुआ दाना), यावक (यव से बना खाद्य), पिण्याक (तिलों की खली), शाक, छांछ, दूध, दही इत्यादि हिंसा वर्जित सर्वरसोपेत भिक्षा को ग्रहण करे ।
यति धर्म समुचय में कहा गया हैविष्णोर्नैवेद्य-संशुद्धं, मुनिभिर्भोज्यमुच्यते।
अन्य देवस्य नैवेद्य, मुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥ .. अर्थ-विष्णु के नैवेद्य से पवित्र बना अन्न मुनियों के ग्रहण करने योग्य होता है, यदि अन्य देव का नैवेद्य खाने में पानाव तो चान्द्रायण तप से प्रायश्चित्त करे। मनु कहते हैंन चोत्पात-निमित्ताभ्यां, न नक्षत्राङ्ग-विद्यया । नानुशासनवादाभ्यां, भिक्षां लप्स्येत कर्हिचित् ।।
अर्थ-निमित्त तथा उत्पातों के फल कथन द्वारा, नक्षत्र विद्या के प्रयोग से, अङ्गविद्या के प्रयोग से अनुशासन (आज्ञा) करके और वाद विवाद कर कभी भिक्षा प्राप्त न करे। विष्णु कहते हैंयदि भैक्षं समादाय, पयुषेद् योगवित्तमः । स पर्युषितदोषेण, भिक्षुर्भवति वैकृमिः ॥ अर्थ-यदि भिक्षा लाकर योगी उसे वासी रख ले, वह भिक्षु भिचा वासी रखने के दोष से कमि का भव पाता है।