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( ३८० ) हंसस्य आयते ज्ञानं, तदा स्यात् परमो हि सः । चातुर्वण्ये प्रभोक्ता च, स्वेच्छया दण्डभत्तदा । स्नानं त्रिषवणं प्रोक्न,नियमाः स्युस्त्रिदण्डिनाम् । न तत्परमहंसानामुनानामात्मदर्शिनाम् ॥ मौनं योगासनं योगस्तितिक्षकान्त शीलता । निस्पृहत्वं समत्वं च, सप्तैतान्येक-दण्डिनः ॥
अर्थः-त्रिदण्ड तथा शिखाधारी, यज्ञोपवीत वाला, गृहत्यागी एक बार अपने पुत्र के घर भोजन करने वाला संन्यासी कुटीचर (क) कहलाता है। ... कुटीचर के स्वरूप वाला, ब्राह्मणों के यहां भिक्षा करने वाला, आसन को स्थिर रखने वाला, विष्णु का जाप करने में तत्पर रहने वाला संन्यासी बहूदक कहलाता है। - यज्ञोपवीत और शिखा से हीन कषाय वस्त्र तथा दण्ड को धारण करने वाला, ग्राम में एक रात नगर में तीन रात बसने बाला और धूआं तथा अग्नि के शान्त होने पर बाणणों के घरों से मिक्षा प्राप्त करने वाला संन्यासी हंस नाम से प्रसिद्ध है, जो कुटिया में रहता है। ...
हंस ही विशिष्ट ज्ञान और वैराग्य प्राप्त होने पर परमहंस कहलाता है, यह चारों वर्षों के यहां से इच्छानुसार भोजन लेता और अपने पास दण्ड रखता है।