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( ३७८ ) सूत्रं तथैव गृह्णीयात्, नित्यमेव बहूदकः ॥१६॥
अर्थः-भिक्षा भ्रमण आदि में अशक्त होने पर यति अपने पुत्रों की निश्रा में संन्यास ग्रहण करता है; और त्रिदण्ड, कमण्डलु, भिक्षापात्र और यज्ञोपवीत इतने उपकरण बहूदक संन्यासी अपने पास रखता है। इन्द्रियाणि मनश्चैव, कर्षन् हंसो विधीयते । कृच्छै श्चान्द्रायणैश्चैव, तुला-पुरुष-संज्ञकैः ॥२०॥ यज्ञोपवीतं दण्डं च, वस्त्रं जन्तु-निवारणम् ।। अयं परिग्रहो नान्यो, हंसस्य श्रतिवेदिनः ॥२१॥
अर्थः-तुला पुरुष संज्ञक कृच्छ, चान्द्रायण से इन्द्रियों तथा मन को खींच कर वश में रखने से वह हंस कहलाता है। __ यज्ञोपवीत, दण्ड, और जन्तु निवारण वस्त्र यह वेदाभ्यासी हंस संन्यासी का परिग्रह है। ... देह संरक्षणार्थ तु, भिक्षामीहेद्विजातिषु ॥२८॥
पात्रमस्य भवेत्पाणिस्तेन नित्यं गृहानटेत् ।
अर्थः--शरीर रक्षा के लिए हंस द्विजाति के घरों में हाथों में ही भोजन करता है।
माधुकरमथैवान्नं, पर-हंसः समाचरेत् । . अर्थः-माधुकरी वृति से प्राप्त अन्न भिक्षान्न को परमहस स्वीकार करे।