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( ३७७ ) संन्यासी चार प्रकार के माने गये हैं। जिनका संक्षिप्त स्वरूप नीचे दिया जाता है।
चतुर्विधा भिक्षुकाः स्युः, कुटीचकबहूदकौ ॥११॥ हंसः परमहंसश्च, पश्चाद् यो यः स उत्तमः । अर्थः-भिनु चार प्रकार के होते हैं, कुटीचक बहूदक, हंस और परमहंस । इनमें उत्तरोत्तर उत्तम माने गये हैं।
एकदण्डी भवेद्वापि, त्रिदण्डी वाऽपि वा भवेत् ॥१२॥ त्यक्त्वा सर्वसुखास्वाद, पुत्रैश्वर्य सुखं त्यजेत् । अपत्येषु वसेन्नित्यं, ममत्वं यत्नतस्त्यजेत्॥१३॥ नान्यस्य गेहे भुञ्जीत, भुञ्जानो दोषभाग्भवेत् । अर्थः-कुटीचक एक दण्डी अथवा त्रिदण्डी हो सकता है वह सांसारिक सुखों के ऊपर से मन हटा कर पुत्र स्नेह और बडप्पन का भाव भी छोड़ देता है। वह अपने सन्तानों के निकट रहता है, फिर भी उन पर मोह ममता नहीं रखता और वह अपने पुत्रों को छोड़ कर अन्य किसी के यहां भोजन नहीं लेता अपने कुल के अतिरिक्त अन्य कुलों में भोजन लेने पर वह दोषी माना गया है। भिक्षाटनादिकेऽशक्ती, यतिः पुत्रषु सम्वसेत् ॥१३॥ त्रिदण्डं कुण्डिकाञ्चैव, भिक्षाधारं तथैव च।