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. ( ३७२ ) , अर्थः- आइये, जाइये, ठहरिये, इस प्रकार का स्वागत सन्मानजनक वचन मोक्षमार्ग में तत्पर रहने वाला मुनि अपने मित्र के लिये भी न बोले ।
प्राचीन श्रतियों में यद्यपि ब्राह्मण ही संन्यासी हो सकता है, ऐसा स्पष्ट प्रतिपादन नहीं मिलता, फिर भी स्मृति काल में यह सिद्धांत निश्चित कर दिया गया कि चतुर्थ आश्रम का अधिकारी ब्राह्मण ही हो सकता है, अन्य कोई नहीं। इस सम्बन्ध में विष्णु स्मृतिकार कहते हैं।
आश्रमास्तु त्रयः प्रोक्ता, वैश्य-राजन्ययोस्तथा । पारिवाज्याश्रम-प्राप्तिाह्मणस्यैव चोदिता ॥
अर्थः-वैश्य तथा क्षत्रियों के लिये तीन आश्रम कहे गये हैं, और संन्यासाश्रम की प्राप्ति ब्राह्मण के लिये कही गई है। रथ्यायां-बहु वस्त्राणि, भिक्षा सर्वत्र लभ्यते । भूमिशय्या सुविस्तीर्णा, यतयः केन दुःखिताः ॥
अर्थः-गलियों में वस्त्र बहुत मिलते हैं, और सब जगह भिक्षा मिलती है, सोने के लिये भूमि रूप शय्या लम्बी चौड़ी पड़ी है। संन्यासी किस कारण से दुःखी हो सकता है।
यतिधर्मकसमुच्चय में लिखा है किसचेलः स्यादचेलो बा, कन्था-प्रावरणोऽपिवा । एक वस्त्रेण वा विद्वान्, अतं मितुश्चरेद् यथा ।।
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