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( ३६० ) विषय में स्मृति के दो श्लोक उद्ध त करके हम इस प्रकरण को पूरा करेंगे।
मारनीयाद् ब्रामणो मांस-मनियुक्तः कथं च न । . क्रतो श्राद्ध नियुक्तो वा, अनरनन् पतति द्विजः ॥५॥ द्विजो जग्ध्वा यथा मांसं, हत्वाऽप्यविधिना पशून् । निरयेष्वयं वासमाप्नोत्याचन्द्रतारकम् ॥५६॥
अर्थ-यज्ञ में अनियुक्त ब्राह्मण कदापि मांस न खाय, और यज्ञ में तथा श्राद्ध नियुक्त द्विज मांस न खाता हुआ अपने धर्म से पतित होता है । द्विज निष्कारण, मांस खाकर और अविधि से पशुहत्या करके यावत् चन्द्रतारक नरक में सदैव निवास करता है।
वानप्रस्थ वानप्रस्थ का वर्णन करते हुए विष्णुस्मृतिकार लिखते हैं:गृहस्थो ब्रह्मचारी वा, वनवासं यदा चरेत् । चीर-बन्कलधारी स्यात, अकृष्टान्नाशनो मुनिः ॥१॥ गत्वा च विजनं स्थानं, पश्च यज्ञान हापयेत् । अमि-होत्रं च जुहुयात, अन्न नीवारकादिभिः ॥२॥ श्रवणेनामिमाधाय, ब्रह्मचारी वने स्थितः । पश्च यज्ञविधानेन, यहं कुर्यादतन्द्रितः ॥३॥
आकाशशायी वर्षासु, हेमन्ते च जलाशये । ग्रीष्मे पञ्चाधिमध्यस्थो, भवेन्नित्यं वने बसन् ॥४॥