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-- ( ३३४ ) अर्थः-शव का अभ्युत्सर्जन करके वहीं पर कायोत्सर्ग करने से उत्थानादि दोष का भय रहता है। अतः उपाश्रय में आकर गुरु के सामने प्रविधि परिष्ठापनिका का कायोत्सर्ग करते हैं।
खमणेय असज्झाये राइणिय महाणिणाय नियगा वा । सेसेसु नत्थि खमणं नेव असज्झाइयं होइ ॥६०॥
अर्थः-मरने वाला श्रमण आचार्य हो, गच्छ में उच्च पद धारी हो, नगर में ख्याति प्राप्त हो, अथवा नगर में उसके सांसारिक सम्बन्धियों की प्रचुरता हो तो श्रमणों को उस दिन उपवास करना चाहिए और अस्वाध्यायिक मनाना चाहिये, परन्तु सामान्य श्रमण के मरने पर न उपवास किया जाता है न अस्वाध्यायिक ही मनाया जाता है। अवरज्जुयस्स तत्तो सुत्तत्थ विसार एहिं थिरएहिं । अवलोयण कायव्वा सुहा सुह गइ निमित्तट्ठा ॥६१॥ 'जं दिसि विकड्डियं खलु सरीरयं अक्खुयं तु संविक्खे । तं दिसि सिवं वयंती सुत्तत्थ विसारिया धीरा ॥६२॥
अर्थः-मरने वाला श्रमण आचार्य, महद्धिक (लब्धि सम्पन्न) महातपस्वी, अनशन पाल कर मरा हो तो दूसरे दिन सूत्रार्थ वेदी विद्वान् को व्युत्सर्जन भमि में जाकर श्रमण की गति जानने के लिये अवलोकन करना चाहिये ।