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( २६६ ) जं जाणेज्ज चिराधोयं मईए दंसणेण वा।। पडि पुच्छि ऊण सुच्चावा, जं च निस्सं किअं भवे ॥७६| अजीवं परिणयं नच्चा, पडिगाहिज्ज संजए । अह संकियं भविज्जाहिं, आसा इत्ताण रोयए ।।७७॥ थोव मासाय णट्ठाए, हत्थगंमि दलाहि मे । मामे अचं विलं पूयं, नालं तरहं विणित्तए ॥७॥ अर्थ-तथा अधिक और अल्प-द्रव्यान्तर संयुक्त पानी अथवा वारक (गुड़ का घडा ) धोकर वर्तन में रक्खा हुआ, जल, पिष्ट से लिप्त वतन धावन जल, और चावल धावन जल, ये सभी प्रकार के पानी यदि तत्काल तैयार किये हुए हों तो साधु को न लेना चाहिए । अपनी बुद्धि से अथवा उसके देखने से यदि मालुम हो कि यह पानी बहुत समय पहले वर्तनादि धोकर रक्खा हुआ है, तथा पूछने और देने वाले के मुख से सुनने से निःशंकित हो गया हो कि यह निर्जीव और परिणत हो गया है, तब संयत उसे ग्रहण करे । यदि धावन जल में किसी प्रकार की शङ्का रहती हो, तो उसे चख कर निर्णय करे, दायक को कहे थोड़ा सा जल मेरे हाथ में दो, मैं चख कर लेने का निर्णय करूंगा। ऐसा न हो कि जल अतिखट्टा, दुर्गन्ध और तृष्णा को दूर करने में समर्थ न हो । __ आचाराङ्ग सूत्र में श्रमणों के लेने योग्य धावन जलों की तीन सूचियां दी गई हैं । जो क्रमशः नीचे दी जाती हैं
१. से भिक्खू वा २से जंपुण पाणगजायं जाणिज्जा। तं जहाउस्से इमं १ वा, संसे इमं २ वा, चाउलोदगं ३ वा, अन्नयरं का