SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . ___ ( २६५ ) .. वृद्ध, तपस्वी, बीमार आदि की सेवा भोजन किये बिना न होगी, इस कारण से साधु को भोजन करना पड़ता है । विहार आदि में चलना फिरना बन्द न हो, इस कारण से साधु को आहार करने का विधान है । संयम सम्बन्धी प्रतिक्रमणादि तमाम अनुष्ठान कर सके, इसलिये साधु आहार करता है। प्राणों को टिकाये रखने के लिये साधु आहार करता है, और धर्म्यध्यान करने में बाधा न आये, इस कारण से साधु आहार करता है। . . . पानेषणा - आहार की तरह जैन श्रमण पानी भी प्रासुक तथा कल्पनीय होता है, उसी को ग्रहण करते हैं । बीज हरी वनस्पति आदि में जैनशास्त्रकार जीव मानते हैं, उसी तरह जलाशयोत्थ तथा वृष्टि जन्य पानी में भी जीव मानते हैं, और उसे सचित्त कहते हैं । जब तक अग्नि आदि अनेक विध विजातीय द्रव्य रूप शस्त्र का प्रयोग नहीं होता, तब तक वह अपनी सचित्तता नहीं छोड़ता इस लिये जैन श्रमण कुआ, तालाब, नदी आदि का पानी जब तक वह अपना मूल स्वरूप छोड़कर प्रासुक (निर्जीव ) नहीं होता, तब तक श्रमणों के लेने योग्य नहीं माना जाता । प्रासुक जल भी वे जहां तहां से स्वयं नहीं लेते, किन्तु गृहस्थ द्वारा दिया जाने वाला ही लेते हैं । श्रमणों के ग्रहण योग्य प्रासुक जल किस प्रकार का होता है उसका स्वरूप नीचे दिया जाता है तहे वुचावयं पाणं, अदुवा वार धोरणं । सं से इमं चाउलोदं, अहुणा धोरं विवज्जए ॥७॥ . . .
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy