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( २६२ ) यदि श्रावकों का अत्याग्रह हो तो एकादि दिन के अन्तर से संचयिक को भी ग्रहण कर सकते हैं।
घृत, गुड, लड्ड.आदि द्रव्य जो जल्दी नहीं बिगड़ते हैं, उन्हें संचयिक विकृति कहते हैं, और दूध दही आदि जो जल्दी बिगड़ जाने वाले द्रव्य हैं वे असंचयिक कहलाते हैं।
अथवा श्रद्धा तथा विभव और काल, भाव, वृद्ध आदि का विचार कर संचयिक विकृति को भी निरन्तर ग्रहण कर सकते हैं, परन्तु देने वाले की परिणामधास खण्डित होने के पहले ही लेना स्थगित कर दे।
श्रावकों की श्रद्धा तथा विभव को जान कर दुर्भिक्षादि काल, बाल, वृद्ध आदि भाव विचार कर उनके तृप्त्यर्थ इत्यादि कार्यों को जानकर संचयिक विकृति को भी निरन्तर ग्रहण करते हैं, दायक के परिणाम की धारा विच्छिन्न न हो, उसके पहले ही देने से रोक दे। .. -- श्रमणों के लिए विकृति ग्रहण के विषय में
व्यवस्था वासावासं पज्जोस वियाणं नो कप्पइ निग्गन्थाण वा निगन्थीण वा हट्ठाणं तुट्ठाणं आरोगाणं बलिय सरीराणं इमाओ नव रस विगईओ. अभिक्खणं आहारित्तए । तं जहा-खीरं १, दहिं २,
नवणीयं ३, सम्पि ४, तिल्ल ५, गुडं ६, महुं ७, मज्ज ८, . मंसं १, ॥ १७ ॥
(चुल्लकप्प सूत्रे पृ०७२)