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________________ ( २६१ ) श्रावकों की भावना बढ़े, उस प्रकार उनके परिणाम की धारा पूरी होने के पहले ही साधु कहे, बस रक्खो । बहुत हो गया। इस प्रकार यतना पूर्वक लाया हुआ विकृत्यात्मक भोजन वृद्ध बाल और कमजोर साधुओं को दिया जाता है, युवान साधुओं को नहीं दिया जाता, परन्तु कारण विशेष की उपस्थिति में उनको भी दिया जाता है । इस प्रकार प्रशस्त विकृति ग्रहण की जाती है। विकृति ग्रहण और उसके विभाजन के सम्बन्ध में निशीथ चूर्णी में नीचे मुजब व्यवस्था दी गई हैतथा संचइयमसंचयं नाउण मसंचयं तु गिएहति । संचइयं पुण कज्जे मिबन्धे चेव संचइमं ॥१॥ घयगुलमोदका दिजे, अविणासी ते संचइया । खीर दहि माइया, विणासी अते असंवाया । अहवन सड्ढा विभवे कालं भावं च वाल बुड्ढायो। नामो निरन्तर गहणं अछिन्नभावेय ठायंति ॥२॥ सावयाण सद्ध नाउण विउलं च विहवं नाउँ कालं च दुभिक्खा इयं भावं च बाल बुझणय अप्पायणट्ठा एवं माइकज्जे नाउण निरन्तरं गेएहति । जावय तस्स दायगस्स भावो नवोछिज्जई, ताव दिज्जमाणं वारयति । (नि० चू० उ०४) ' अर्थ-विकृति दो प्रकार की होती है- संचयिक, असं. चयिक, इन दो प्रकारों को समझ कर असंचलिक को ग्रहण करते हैं, और संचयिक को कार्य उपस्थित होने पर ग्रहण करते हैं।
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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