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( २५८ ) अन्त प्रान्त आहार कहलाता था। इस का निर्देश निनोद्धत कल्प भाष्य की गाथा में किया है।
निफाव-चणक माई अंतं पंतं तु वावरणं । नेह रहियं तु लूह, जंवा अबलं समावेणं ॥ १३६३ ॥
पृ० ११४ अर्थ-वाल और चना आदि अन्ताहार कहलाता है, और विल्कुल रस-हीन आहार प्रान्त नाम से व्यवहृत है। जो विल्कुल स्नेह-हीन हो उसे रूक्षाहार कहते हैं अथवा जो द्रव्य स्वभाव से ही निर्बल होता है उसे भी अंन्त प्रान्ताहार कहते हैं । यह जघन्य प्रकार का आहार तरुण साधुओं के लिये खास हित कर माना है, और कहा गया है जहाँ तक हो सके युवक श्रमण इसी प्रकार के आहार से अपना निर्वाह करे। ___ मध्यमान-शाक, रोटी, पूड़ी, दाल, भात, आदि जो हमेशा का खाना है उसे सामान्यरूप में सर्व श्रमणों के लिये उपादेय माना है। .
उत्कृष्टाहार-जो प्रणीताहार के नाम से प्रसिद्ध है इसमें दूध, दही, घी, गुड़, तेल और सभी प्रकार के पक्वान्न आदि विकृतियों का समावेश होता है। यह विकृत्यात्मक भोजन सामान्य रूप से जैन श्रमणों के लिये वर्जित किया है, फिर भी देश काल अधिकारी विशेष का विचार करके इस प्रणीत आहार को ग्रहण करने का विधान भी किया गया है। जो नीचे के विवेचन से स्पष्ट होगा।