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बहु अट्टियं पुग्मवं अणिमिसं वा बहु कंटयं । च्छियं विदुयं विल्ल उच्छु खंडव सिबलिं ॥ ७३ ॥ अप्पे सिया भोज्जाए, बड्ड उज्भुय धम्मियं । दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७४ ॥ “दशचै० पिण्डे० १० १७५०० प्रमोद्देश”
अर्थः- काटा हुआ सचित्त कन्द, मूल, फल और पत्र शाकतुम्बाक, छिलका तथा मज्जा के भीतर का सचित्त गूदा और सचित्त अदरख इन सबको वर्जित करें । इसी प्रकार सक्त का चूर्ण, बेर का चूर्ण, शष्कुली ( रसभरी पूड़ी ) राव, अपूप, अथवा उस प्रकार का कोई भी अन्न जो हाथ में लेने से बिखरता हो, शिथिल बन गया हो तथा धूल से मिला हुआ खाद्य इस प्रकार के भोज्य पदार्थों को देती हुई गृह स्वामिनी को श्रमण कहे कि, इस प्रकार का भोजन मुझे नहीं कल्पता । प्रचुर बीज-गुठली वाला ha hai on गूदा अनेक कांटो से भरा वेसन का मत्स्य, अस्थिक तिन्दुक, बिल्व आदि फल, गन्ने का खण्ड और अप्राक कवी फलियां और ऐसा पदार्थ जिस में भोजन का अंश कम और फेंक देने का कचरा बहुत हो तथा जो पदार्थ फेंक देने योग्य हो उसे देती हुई गृहस्वामिनी को साधु कहे, इस प्रकार का भोजन मुझे 'मेहीं चाहिए ।
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तस्थ से मुजमायस्त, श्रयं को सिया । तक सकेर वा वि अन्नं वा वि तहा विहं ॥ ८४ ॥