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( २१७ ) "इतिवृत्तक' की उपयुक्त चार पंक्तियों में दान संविभाग अनुग्रह और याग में आमिष और धर्मदान आदि का तारतम्य बताकर श्रामिष की अपेक्षा से धर्म को प्रधानता दी है। यहां प्रयोग में लाया गया आमिष शब्द भोजन वाचक है, इसमें कोई शका नहीं हो सकती । अन्न अथवा भक्त शब्द का प्रयोग न कर आमिष शब्द को पसन्द किया इसका कारण इतना ही है कि उस समय
आमिष प्रणीत भोजन (खग्ध) मिष्टान के अर्थ में व्यवहृत होता था। भगवान बुद्ध के कहने का आशय यह है कि मिष्टाम के दान, संविभाग, अनुग्रह और याग से भी धर्म का दान, संविभाग, अनुमह और याग करना श्रेष्ठ है। . - इसी प्रकार "म.झम निकाय” के 'धम्मदायाद सुत्स' में भी भगवान बुद्ध ने भोजन के अर्थ मे आमिष शब्द का प्रयोग करके भिक्षुओं को उपदेश दिया है। जो निम्नलिखिस उद्धरण से ज्ञात . होगाः,
"धम्मदाबाद में भिक्खवे भवथ, मा आमिस दायाद अस्थि में तुम्हेसु-अनुकम्पा-किंति में सावका धम्म दायाद भवेंय्युनो श्रामिस दायादाति । तुम्हे च भिक्खचे आमिस दायाद भवेय्यानो धम्म दायादा । तुम्हे पि तेन प्रादिस्तो भवेय्य श्रामिस दायदा सत्थु सावका विहरन्ति नो धम्मदाबादाति । अहं पितेन प्रादित्सो भवेश्य प्रामिस दायाद सत्थु सावका विहरन्ति नो धम्म दायादाति तुम्हे च भिक्खये धम्मदायादर भावेच्याथ नो आमिसदायादा, तुम्हेऽपि आदिस्सर भवेच्याथ-धम्मदापादा 'सत्थु सावका