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मांसमुद्गीथः । यो मध्यमस्तन्मांसम् ।
अर्थ - मांस के गुण गाओ जो भीतर का सार भाग है, वही मांस है ।
उक्त उदाहरणों से अच्छी तरह प्रमाणित हो जाता है कि वैदिक प्राचीन साहित्य में अति पूर्वकाल में मांस आमिष आदि शब्द वनस्पति खाद्य के अर्थ में प्रयुक्त होते थे, और भोजन में पश्वत मांस की प्रवृत्ति बढने के समय इन शब्दों का धातु प्रत्यय से व्यक्त होने वाला अर्थ तिरोहित हो गया और प्राण्यङ्ग मांस ही मांस शब्द का वाच्यार्थ बन गया ।
पिछले समय में जब कि मांस तथा आमिष शब्द केवल प्राण्यङ्ग मांस वाचक बन चुके थे, उस समय भी आमिष शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता था । ऐसा धर्मसिन्धुप्रन्थ में दिये गये निम्नलिखित प्राचीन श्लोकों से ज्ञात होता है
प्रारमङ्गचूर्ण चर्मस्थोदकं जम्बीरं बीजपूरं यज्ञशेषभिन्न विष्णवे निवेदितान्न दग्धान्न मसूरं मांसं चेत्यष्ट विधमामिषं वर्जयेत् ।
अन्यत्र तु गोछागी महिष्यन्न दुग्धं पर्युषितान्नं द्विजेभ्यः क्रीताः रसा: भूमिलवणं ताम्रपात्रस्थं गव्यं पल्वलजलं सार्थ पक्कमन्नमित्या - मिष गण उक्तः ।
अर्थ - प्राणधारी के किसी अङ्ग का चूर्ण, चमड़े की दृति में भरा हुआ पानी, जम्बीर फल, विजोरा, यज्ञ शेष के अतिरिक्त विष्णु को निवेदित नहीं किया हुआ अन्न, जला हुआ अन्न, मसूर