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(१६२ ) . उक्त दो सूत्रों में से पहला विकृति खाने सम्बन्धी और दूसरा विकृषि प्रहल करने सम्बन्धी है, इन दोनों में मांस शब्द न हो कर प्रणीत आहार और भोजम जात शब्द प्रयुक्त हुए हैं । इससे सिद्ध होता है कि मांस प्रणीत बोहार श्रादि एक दूसरे के पर्याय नाम हैं । प्राण्यङ्ग मांस हल्के मनुष्यों तथा क्षत्रियादि शिकारी जातियों का खाद्य अवश्य बन गया था, तथापि जैन श्रमण तो क्या जैन उपासक गृहस्थ भी उसका आहार नहीं करते थे। यह सब कुछ होने पर भी जैन तथा वैदिक सम्प्रदायों के अतिरिक्त बौद्ध तथा अन्य तुद्र सम्प्रदायों में प्राण्यङ्ग मांस ने अपना अड्डा मजबूत कर लिया था। ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद मांस शब्द जो पिष्ट जनित मिष्टान्न तथा फल गर्भ के अर्थ में प्रयुक्त होता था, धीरे धीरे भूला जाने लगा, और मांस शब्द से केवल प्राण्यङ्ग मांस का ही अर्थ किया जाने लगा। ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्ववर्ती काल में निर्मित जैन सूत्रों तथा प्रकीर्णकों में मांस शब्द मौलिक अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है, परन्तु इसके बाद के बने हुए नियुक्ति भाष्यचूर्णी, आदि जैन ग्रन्थों में मांस तथा पुल बे दो शब्द बहुधा प्राण्यङ्ग मांस के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं।
"आवश्यक निर्वक्ति" में तथा हरिमा सूरिकृत "पंच वस्तुक" प्रन्थ में रस विकृति की संख्या नब से बढ़कर दश हो गई है । जो नीचे के उद्धरण से ज्ञात होगी। "पंचेव य खीराईसरि दहीणि सप्पि नवमीता। चत्तारि तिल्लाई दो बियड़े फाणिये दुनि ॥१६०६॥