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इसी दशवेकालिक सूत्र की चूलिका में जैन श्रमण को "अमज मंसासी” अर्थात् मद्य-मांस का न खाने वाला कहां है, फिर भला उसी दशवैकालिक के उक्त अवतरण में आए हुए पुद्गल तथा अनिमिष शब्दों से मांस-मत्स्य कैसे ग्रहण किये जा सकते हैं ।
६ - यह अवतरण भगवती सूत्र का है। इसमें निर्ग्रन्थ साधु को मादी अर्थात् मृत को खाने वाला कहा है। जिसका तात्पर्य यह है कि निर्ग्रन्थ साधु किसी भी सजीव पदार्थ को खान पान में नहीं लेते थे । हरी वनस्पति तथा कच्चा जल तक निर्मन्थ के लिये अखाद्य पेय थे। अग्नि आदि शस्त्रों अथवा अन्य किसी प्रकार के प्रयोगों से खाद्य पेय पदार्थ निर्जीव होने के बाद ही निर्ग्रन्थ श्रमण मृत खाने वाले कहे गये हैं ।
जैन श्रमणों को मांसाहारी मानने वालों ने भगवती का यह लेख पढा होता तो सम्भव है, वे उनको मुर्दाखाने वाला भी कह डालते | अच्छा हुआ कि इन शोधकों की दृष्टि में भगवती का उक्त अवतरण नहीं आया ।
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१ - यह अवतरण कल्पसूत्र की समाचारी का है जो पूर्वकाल में " चुल्लकप्प सुयं इस नाम से पहिचाना जाता था । इसमें वर्षा वास स्थित निर्ग्रन्थ निर्मन्थनियों को नव रस विकृतियों को बारबार न लेने की आज्ञा दी गई है, क्योंकि वर्षा ऋतु उनके तप करने का समय है ।
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अतः तप के पारणे में अथवा रोगादि कारण विशेष में ही विकृतियों के ग्रहण में कैसा विवेक होना चाहिए और उनके