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( १७६ ) स्वस्थ मनुष्य भी निर्दिष्ट मात्रा में लिया करते थे। जिससे उनकी उदराग्नि व्यवस्थित बनी रहती थी।
तुषोदक आदि की बनावट निघण्टु ग्रन्थों में निम्न प्रकार की उपलब्ध होती है।
"शालिग्राम निघण्टु भूषण" में सौवीर यवोदकादि जलसौवीरं सुवीराम्लं यवोत्थं गोधूम-सम्भवम् । -- यवाम्लजं तुषोत्थं, तुषोदकश्चापि कीर्तितम् ।।
अर्थ-सौवीर, सुवीराम्ल ये दोनों पर्याय नाम हैं और गेहूँ तथा यवों से बनने वाले जल को यवोदक कहते हैं, गेहूँ तथा यव के छोकर से बनने वाले जल को तुषोदक कहते हैं। भावप्रकाश निघण्टुकार इस विषय में कहते हैंसौवीरं तु यवैरामैः पक्वैर्वा निष्तुषैः कृतम् । गोधूमैरपि सौवीर, माचार्याः केचिदिरे ॥८॥ सौंवीरं तु ग्रहण्यशः कफघ्नं भेदि दीपनम् । उदावर्ताङ्ग मर्दास्थि, शूलानाहेषु शस्यते ॥६॥ .
(भा० प्र०नि०). अर्थ-निष्तुष किये हुए कच्चे अथवा भूने हुए यवों के सन्धान से सौवीर बनाया जाता है, किन्हीं आचार्यों में गेहुंओं से भी सौवीराम्ल बनाने का कहा है।